महाभारत आदि पर्व अध्याय 60 श्लोक 1-23

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षष्टितम (60) अध्‍याय: आदि पर्व (अंशावतरण पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: षष्टितम अध्‍याय: श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद

जनमेजय के यज्ञ में व्‍यासजी का आगमन, सत्‍कार तथा राज की प्रार्थना से व्‍याजी का वैशम्‍पायनजी से महाभारत-कथा सुनाने के लिये कहना उग्रश्रवाजी कहते हैं- शौनक ! जब विद्वान् महर्षि श्रीकृष्‍णद्वैयापन ने यह सुना कि राजा अनमेजय सर्पयज्ञ की दीक्षा ले चुके हैं, तब वे वहां आये।

वेदव्‍यासजी को सत्‍यवती ने कन्‍यावस्‍था में ही शक्तिनन्‍दन --- से यमुनाजी के द्वीप में उत्‍पन्न किया था। वे पाण्‍डवों के पितामह हैं ।जन्‍म लेते ही उन्‍होंने अपनी इच्छा से शरीर को बढ़ा लिया तथा महायशस्‍वी व्‍यासजी को (स्‍वत:ही) अंगों और इतिहासों हेतु सम्‍पूर्ण वेदों और उस परमात्‍मतत्‍व का ज्ञान प्राप्‍त हो गया, --कोई तपस्‍या, वेदाध्‍ययन, व्रत, उपवास, शम और यज्ञ आदि के द्वारा भी नहीं प्राप्त कर सकता। वे वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ थे और उन्‍होंने एक ही वेद को चार भागों में विभक्त किया था। ब्रह्मर्षि व्‍यासजी परब्रह्म और अपरब्रह्म के ज्ञाता, कवि (त्रिकालदर्शी), सत्‍य व्रतपरायण तथा परम पवित्र हैं। उनकी कीर्ति पुण्‍यमयी है और वे महान यशस्‍वी है। उन्‍हों ने ही शान्‍तनु की संतान-परम्‍परा का विस्‍तार करने के लिये पाण्‍डु, धृतराष्ट्र तथा विदुर को जन्‍म दिया था। उन महात्‍मा व्‍यास ने वेद-वेदांगों के पारंगत विद्वान् शिष्‍यों के साथ उस समय राजर्षि जनमेजय के यज्ञमण्‍डप में प्रवेश किया ।। वहां पहुंचकर उन्‍होंने सिंहासन पर बैठे हुए राजा जनमेजय को देखा, जो बहुत-से सभासदों द्वारा इस प्रकार घिरे हुए थे, मानो देवराज इन्‍द्र देवताओं से घिरे हुए हों| जिनके मस्‍तकों पर अभिषेक किया गया था, ऐसे अनेक जनपदों के नरेश तथा यज्ञानुष्ठान में कुशल ब्रह्माजी के समान योग्‍यता वाले ॠ‍ित्विज भी उन्‍हें सब ओर से घेरे हुए थे भरतश्रेष्ठ राजर्षि जनमेजय महर्षि व्‍यास को आया देख बड़ी प्रसन्नता के साथ उठकर खड़े हो गये और अपने सेवक-गणों के साथ तुरंत ही उनकी अगवानी करने के लिये चल दिये। ।। जैसे इन्‍द्र ब्रहस्‍पतिजी को आसन देते हैं, उसी प्रकार राजा ने सदस्‍यों की अनुमति लेकर व्‍यासजी के लिये सुवर्ण का विष्ठर दे आसन की व्‍यवस्‍था की । देवर्षियों द्वारा पूजित वर दायक व्‍यासजी जब वहां बैठ गये, तब राजेन्‍द्र जनमेजय ने शास्त्रीय विधि के अनुसार उनका पूजन किया।। उन्‍होंने अपने पितामह श्रीकृष्‍णद्वैयापन को विधि-विधान के साथ पाद्य, आचमनीय, अर्ध्‍य और गौ भेंट की, जो इन वस्‍तुओं को पाने के अधिकारी थे। पाण्‍डववंशी जनमेजय से वह पूजा ग्रहण करके गौ के सम्‍बन्‍ध में अपना आदर व्‍यक्त करते हुए व्‍यासजी उस समय बड़े प्रसन्न हुए ।। पितामह व्‍याजसी का प्रेम पर्वूक पूजन कर के जनमेजय का चित्त प्रसन्न हो गया और वे उनके पास बैठकर कुशल-मंगल पूछने लगे| भगवान् व्‍यास ने भी जनमेजय की ओर देखकर अपना कुशल-समाचार बताया तथा अन्‍य सभासदों द्वारा सम्‍मानित हो उनका भी सम्‍मान किया। तदनन्‍तर सब सदस्‍यों सहित राजा जनमेजय ने हाथ जोड़कर द्विजश्रेष्ठ व्‍यासजी से इस प्रकार प्रश्न किया। जनमेजयने कहा- ब्रह्मन् ! आप कौरवों और पाण्‍डवों को प्रत्‍यक्ष देख चुके हैं; अत: मैं आपके द्वारा वर्णित उनके चरित्र को सुनना चाहता हूं।वे तो रोग-द्वेष आदि दोषों से रहित सत्‍कर्म करने वाले थे, उनमें भेद-बुद्वि कैसे उत्‍पन्न हुई? तथा प्राणियों का अन्‍त करने वाला उनका वह महायुद्ध किस प्रकार हुआ? द्विजश्रेष्ठ ! जान पड़ता है, प्रारब्‍ध ने ही प्रेरणा करके मेरे सब प्रपितामहों के मन को युद्ध रुपी अनिष्ठ में लगा दिया था। उनके इस सम्‍पूर्ण वृत्तान्‍त का आप यथावत् रुप से से वर्णन करें| उग्रश्रवाजी कहते हैं- जनमेजय की यह बात सुनकर श्रीकृष्‍णद्वैयापन व्‍यास ने पास की बैठे हुए अपने शिष्‍य बैशम्‍पायन को उस समय इस प्रकार आदेश दिया।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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