महाभारत आदि पर्व अध्याय 63 श्लोक 20-47
त्रिषष्टितम (63) अध्याय: आदि पर्व (अंशावतरण पर्व)
दूसरे दिन अर्थात नवीन संवत्सर के प्रथम दिन प्रतिपदा को वह छड़ी निकालकर बहुत ऊंचे स्थान में रखी जाती है; फिर कपड़े की पेटी, चन्दन, माला और आभूषणों से उसको सजाया जाता है। उसमें विधि पूर्वक फूलों के हार और सूत लपेटे जाते हैं। तत्पश्चात् उसी छड़ी पर देवेश्वर भगवान् इन्द्र का हंस रुप से पूजन किया जाता है। इन्द्र ने महात्मा वसु के प्रेम वश स्वंय हंस का रुप धारण करके वह पूजा ग्रहण की । नृपश्रेष्ठ वसु के द्वारा की हुइ उस शुभ पूजा को देखकर प्रभावशाली भगवान् महेन्द्र प्रसन्न हो गये और इस प्रकार बोले- ‘चेदिदेश के अधिपति उपरिचर वसु जिस प्रकार मेरी पूजा करेंगे और मेरे इस उत्सव को रचायेंगे, उनको औरउनके समूचे राष्ट्र को लक्ष्मी एवं विजय की प्राप्ति होगी । ‘इतना ही नहीं, उनका सारा जनपद ही उत्तरोत्तर उन्नति शील और प्रसन्न होगा’ राजन् ! इस प्रकार महात्मा महेन्द्र ने, जिन्हें मघवा भी कहते हैं, प्रेम पूर्वक महाराज वसु का भली- भांति सत्कार किया । जो मनुष्य भूमि तथा रत्न आदि का दान करते हुए सदा देवराज इन्द्र का उत्सव रचायेंगे, वे इन्द्रोत्सव द्वारा इन्द्र का वरदान पाकर उसी उत्तम गति को पा जायेंगे, जिसे भूमिदान आदि के पुण्यों से युक्त मानव प्राप्त करते हैं । इन्द्र के द्वारा उपर्युक्त रुप से सम्मानित चेदिराज वसु ने चेदि देश में ही रहकर इस पृथ्वी का धर्मपूर्वक पालन किया किया। इन्द्र की प्रसन्नता के लिये चेदिराज वसु प्रति वर्ष इन्द्रोत्सव मनाया करते थे । उनके अनन्त बलशाली महापराक्रमी पांच पुत्र थे । सम्राट वसु ने विभिन्न राज्यों पर अपने पुत्रों को अभिषिक्त कर दिया । उनमें महारथी बृहद्रथ मगध देश का विख्यात राजा हुआ। दूसरे पुत्र का नाम प्रत्यग्रह था, तीसरा कुशाम्ब था, जिसे मणिवाहन भी कहते हैं । चौथा मावेल्ल था । पांचवा राजकुमार यदु था, जो युद्ध में किसी से पराजित नहीं होता था ।राजा जनमेजय ! महातेजस्वी राजर्षि वसु के इन पुत्रों ने अपने-अपने नाम से देश और नगर बसाये । पांचो वसुपुत्र भिन्न-भिन्न देशों के राजा थे और उन्होंने पृथक- पृथक अपनी सनातन वंश परम्परा चलायी । चेदिराज वसु के इन्द्र के दिये हुए स्फटिक मणिमय विमान में रहते हुए आकाश में ही निवास करते थे । उस समय उन महात्मा नरेश की सेवा में गन्धर्व और अप्सराएं उपस्थित होती थीं । सदा ऊपर-ही-ऊपर चलने के कारण उनका नाम ‘राजा उपरिचर’ के रुप में विख्यात हो गया । उनकी राजधानी के समीप शुक्तिमती नदी बहती थी । एक समय कोलाहल नामक सचेतन पर्वत ने कामवश दिव्यरुप धारिणि नदी को रोक लिया । उसके रोकने से नदी की धारा रुक गयी । यह देख उपरिचर वसु ने कोलाहल पर्वत पर अपने पैर से प्रहार करते ही पर्वत में दरार पड़ गयी, जिससे निकल कर वह नदी पहले के समान बहने लगी । पर्वत ने नदी के गर्भ से एक पुत्र और एक कन्या, जुड़वी संतान उत्पन्न की थी । उसके अवरोध से मुक्त करने के कारण प्रसन्न हुई नदी ने राजा उपीरचर को अपनी दोनों संतानें समर्पित कर दीं।
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