महाभारत आदि पर्व अध्याय 68 श्लोक 1-15
अष्टषष्टितम (68) अध्याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)
राजा दुष्यन्त की अद्भुत शक्ति तथा राज्यशासन की क्षमता का वर्णन
जनमेजय बोले - ब्रह्मन् ! मैंने आपके मुख से देवता, दानव, राक्षस, गन्धर्व तथा अप्सराओं के अंशावतरण का वर्णन अच्छी तरह सुन लिया। विप्रवर ! अब इन ब्रह्मर्षियों के समीप आपके द्वारा वर्णित कुरूवंश का वृत्तान्त पुनः आदि से ही सुनना चाहता हूं। वैशम्पायनजी ने कहा - भरतवंश शिरोमणे ! पूरूवंश का विस्तार करने वाले एक राजा हो गये हैं, जिनका नाम था दुष्यन्त। वे महान् तथा चारों समुद्रों से घिरी हुई समूची पृथ्वी के पालक थे। राजा दुष्यन्त पृथ्वी के चारों भागों का तथा समुद्र से आवृत सम्पूर्ण देशों का भी पूर्णरूप से पालन करते थे। उन्होंने अनेक युद्वों में विजय पायी थी। रत्नाकर समुद्र तक फैले हुए, चारों वर्ण के लोगों से भरे-पूरे तथा म्लेच्छ देश की सीमा से मिले-जुले सम्पूर्ण भूभागों का ये शत्रुमर्दन नरेश अकेले ही शासन तथा संरक्षण करते थे। उस राजा के शासन काल में कोई मनुष्य वर्णसंकर संतान उत्पन्न नहीं करता था; पृथ्वी बिना जोते-बोये ही अनाज पैदा करती थी और सारी भूमि ही रत्नों की खान बनी हुई थी, इसलिये कोई भी खेती करने या रत्नों की खान का पता लगाने की चेष्टा नहीं करता था। पाप करने वाला तो उस राज्य में कोई था ही नहीं। नरेश्रेष्ट ! सभी लोग धर्म में अनुराग रखते और उसी का सेवन करते थे। अतः धर्म और अर्थ दोनों ही उन्हें स्वतः प्राप्त हो जाते थे। तात ! राजा दुष्यन्त जब इस देश के शासन थे, उस समय कहीं चोरों का भय नहीं था। भूख का भय तो नाम मात्र को भी नहीं था। इस देश पर दुष्यन्त के शासन काल में रोग-व्याधि का डर तो बिल्कुल ही नहीं रह गया था। सब वर्णों के लोग अपने-अपने धर्म के पालने में रत रहते थे। देवाराधन आदि कर्मों को निष्काम भाव से ही करते थे। राजा दुष्यन्त का आश्रय लेकर समस्त प्रजा निर्भय हो गयी थी। मेघ समय पर पानी बरसाता और अनाज रसयुक्त होते थे। पृथ्वी सब प्रकार के रत्नों से सम्पन्न तथा पशु-धन से परिपूर्ण थी। ब्राहम्ण अपने वर्णाश्रमोचित कर्मों में तत्पर थे। उनमें झूठ एवं छल-कपट आदि का अभाव था । राजा दुष्यन्त स्वंय भी नवयुवक थे। उनका शरीर वज्र के सदृश दृढ था। वे अद्भुत एव महान् पराक्रम से सम्पन्न थे। वे अपने दोनों हाथों द्वारा उपवनों और काननों सहित मन्दराचल को उठाकर ले जाने की शक्ति रखते थे। गदायुद्व के प्रक्षेप, विक्षेप, परिक्षेप और अभिक्षेप- इन चारों प्रकारों में कुशल तथा सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रों की विद्या में अत्यन्त निपुण थे। घोड़े और हाथी की पीठ पर बैठने की कला में अत्यन्त प्रवीण थे। बल में भगवान विष्णु के समान और तेज में भगवान सूर्य के सदृश थे। वे समुद्र के समान अक्षोभ्य और पृथ्वी के समान सहनशील थे। महाराज दुष्यन्त का सर्वत्र सम्मान था। उनके नगर तथा राष्ट्र के लोग सदा प्रसन्न रहते थे। वे अत्यन्त धर्मयुक्त भावना से सदा प्रसन्न रहने वाली प्रजा का शासन करते थे।
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