महाभारत आदि पर्व अध्याय 73 श्लोक 14-25

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त्रिसप्ततितम (73) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: त्रिसप्ततितम अध्‍याय: श्लोक 14-25 का हिन्दी अनुवाद

अतः सुन्दरी ! मैं तुम्हें पाने के लिये इच्छुक हूं। तुम भी मुझे पाने की इच्छा रखकर गान्धर्व विवाह के द्वारा मेरी पत्नी बन जाओ। शकुन्तला ने कहा - पौरवश्रेष्ठ ! यदि यह गान्धर्व विवाह धर्म का मार्ग है, यदि आत्मा स्वयं ही अपना दान करने में समर्थ है तो इसके लिये मैं तैयार हूं; किंतु प्रभु ! मेरी एक शर्त है, सुन लीजिये। और पालन करने के लिये मुझसे सच्ची प्रतिज्ञा कीजिये। वह शर्त क्या है, वह मैं तुमसे एकान्त में कह रही हूं - महाराज दुष्यन्त ! मेरे गर्भ से आपके द्वारा जो पुत्र उत्पन्न हो, वही आपके बाद युवराज हो, ऐसी मेरी इच्छा है। यह मैं आपसे सत्य कहती हूं। यदि यह शर्त इसी रूप में आपको स्वीकार हो तो आपके साथ मेरा समागम हो सकता है। वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय ! शकुन्तला की यह बात सुनकर राजा दुष्यन्त ने बिना कुछ सोचे विचारे यह उत्तर दे दिया कि ‘ऐसा ही होगा।’ वे शकुन्तला से बोले- ‘शुचिस्मिते ! मैं शीघ्र तुम्हें अपने नगर में ले चलूंगा। ‘सुश्रोणि ! तुम राजभवन में ही रहने योग्य हो। मैं तुमसे यह सच्ची बात कहता हूं।’ ऐसा कहकर राजर्षि दुष्यन्त ने अनिन्द्यगामिनी शकुन्तला को विधि पूर्वक पाणिग्रहण किया और उसके साथ एकान्तवास किया। फिर उसे विश्वास दिलाकर वहां से विदा हुऐ। जाते समय उन्होंने बार-बार कहा - पवित्र मुस्कान वाली सुन्दरी ! मैं तुम्हारे लिये चतुरंगिनी सेना भेजूंगा और उसी के साथ अपने राज भवन में बुलवाऊंगा। अनिन्द्यगामिनी शकुन्तला से ऐसा कह कर राजर्षि दुषयन्त ने उसे अपनी भुजाओं में भर लिया और उसकी ओर मुस्कराते हुए देखा। देवी शकुन्तला राजा की परिक्रमा करके खड़ी थी। उस समय उन्होंने उसे हृदय से लगा लिया। शकुन्तला के मुख पर आसुओं की धारा बहचली और वह नरेश के चरणों में गिर पड़ी। राजा ने देवी शकुन्तला को फिर उठाकर बार-बार कहा - ‘राजकुमारी ! चिन्ता न करो। मैं अपने पुण्य की शपथ खाकर कहता हूं, तुम्हें अवश्‍य बुला लूंगा।’ वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! इस प्रकार शकुन्तला से प्रतिज्ञा करके नरेश्‍वर राजा दुष्यन्त आश्रम से चल दिये। उनके मन में महर्षि कण्व की ओर से बड़ी चिन्ता थी कि तपस्वी भगवान कण्व यह सब सुनकर न जाने क्या कर बैठेंगे? इस तरह चिन्ता करते हुए ही राजा ने अपने नगर में प्रवेश किया। उनके गये दो ही घड़ी बीती थी कि महर्षि कण्व भी आश्रम पर आ गये; परंतु शकुन्तला लज्जावश पहले के सामन पिता के समीप नहीं गयी। तत्पश्‍चात् वह डरती हुई ब्रह्मर्षि के निकट धीरे-धीरे गयी। फिर उसने उनके लिये आसन लेकर विछाया। शकुन्तला इतनी लज्जित हो गयी थी कि महर्षि से कोई बात तक न कर सकी। भरतश्रेष्ठ ! वह अपने धर्म से गिर जाने के कारण भयभीत हो रही थी। जो कुछ समय पहले तक स्वाधीन ब्रह्मचारिणी थी, वही उस समय अपना दोष देखने के कारण घवरा गयी थी। शकुन्तला को लज्जा में डूवी हुई देख महर्षि कण्व ने उससे कहा। कण्व बोले - बेटी ! तू सलज रहकर भी दीर्घायु होगी अब पहले जैसी चपल न रह सकेगी। शुभे ! सारी बातें स्पष्ट बता भय न कर। वैशम्‍पायनजी कहते हैं- राजन् ! पवित्र मुसकान वाली वह सुन्‍दरी वह सुन्‍दरी अत्‍यन्‍त सदाचारिणी थी; तो भी अपने व्‍यवहार से लज्जा का अनुभव करती हुई महर्षि कण्‍व से बड़ी कठिनाई के साथ गद्गगद कण्‍ठ होकर बोली। शकुन्‍तला बोली- तात ! इलिल कुमार महाराज दुष्‍यन्‍त इस वन में आये थे। दैवयोग से इस आश्रम पर भी उनका आगमन हुआ और मैंने उन्‍हें अपना पति स्‍वीकार कर लिया। पिताजी ! आप उन पर प्रसन्न हों। वे महायशस्‍वी नरेश अब मेरे स्‍वामी हैं। इसके बाद का सारा वृतान्‍त आप दिव्‍य ज्ञान दृष्टि से देख सकते हैं। क्षत्रिय कुल को अभयदान देकर उन पर कृपा दृष्टि करें। महातपस्‍वी भगवान् कण्‍व दिव्‍यज्ञान से सम्‍पन्न थे। वे दिव्‍य दृष्टि से देखकर शकुन्‍तलाक की तात्‍कालिक अवस्‍था को जान गये; अत: प्रसन्न होकर बोले।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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