महाभारत आदि पर्व अध्याय 74 श्लोक 34-47
चतु:सप्ततितम (74) अध्याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)
मैं स्वयं आपके पास आयी हूं, ऐसा समझकर मुझे पतिव्रता पत्नी का तिरस्कार न कीजिये। मैं आपके द्वारा आदर पाने योग्य हूं और स्वयं आपके निकट आयी हुई आपही की पत्नि हूं, तथापि आप मेरा आदर नहीं करतेहैं। ‘आप किसलिये नीच पुरुष की भांति भरी सभा में मुझे अपमानित कर रहे हैं? मैं सूने जंगल में तो नहीं रो रही हूं? फिर आप मेरी बात क्यों नहीं सुनते? ‘महाराज दुष्यन्त ! यदि मेरेउचित याचना करने पर भी आप मेरी बात नहीं मानेंगे,तो आज आपके सिर के सैकड़ों टुकड़े हो जायेंगे। ‘पति ही पत्नी के भीतर गर्भरुप में प्रवेश करके पुत्र रुप में जन्म लेता है। यही जाया (जन्म देने वाली स्त्री) का जायात्व है, जिसे पुराणवेत्ता विद्वान जानते हैं। ‘शास्त्र के ज्ञाता पुरुष के इस प्रकार जो संतान उत्पन्न होती है, वह संतति की परम्परा द्वारा अपने पहले के मरे हुए पितामहों का उद्धार कर देती है। ‘पुत्र’पुत्’ नामक नरक से पिता का त्राण करता है, इसलिये साक्षात् ब्रह्माजी ने उसे ‘पुत्र’ कहा है। ‘मनुष्य पुत्र से पुण्य लोकों पर विजय पाता है, पौत्र से अक्षय सुख का भागी होता है तथा पौत्र के पुत्र से प्रतितामहगण आनन्द के भागी होते हैं। ‘वही भार्या है, जो घर के काम-काज में कुशल हो। वहीं भार्या है, जो संतानवती हो। वही भार्या है जो अपने पति को प्राणों के समान प्रिय मानती हो और वही भार्या है, जो पतिव्रता हो। ‘भार्या पुरुष का आधा अंग है। भार्या उसका सबसे उत्तम मित्र है। भार्या धर्म, अर्थ और काम का मूल है और संसार-सागर में तरने की इच्छा वाले पुरुष के लिये भार्या ही प्रमुख साधन है। ‘जिनके पत्नी है,वे ही यज्ञ आदि कर्म कर सकते हैं। सपत्नीक पुरुष ही सच्चे गृहस्थ हैं। पत्नी वाले पुरुष सुखी और प्रसन्न रहते हैं तथा जो पत्नी से युक्त हैं,वे मानो लक्ष्मी से सम्पन्न हैं (क्योंकि पत्नी ही घर की लक्ष्मी है)। पत्नी ही एकान्त में प्रिय वचन बोलने वाली संगिनी या मित्र है। धर्मकार्यों में स्त्रियां पिता की भांति पति की हितैषिणी होती हैं और संकट के समय माता की भांति दु:ख में हाथ बंटाती तथा कष्ट–निवारण की चेष्टा करती हैं। ‘परदेश में यात्रा करने वाले पुरुष के साथ यदि उसकी स्त्री हो तो वह घोर-से-घोर जंगल में भी विश्राम पा सकता है- सुख से रह सकता है। लोक व्यवहार में भी जिसके स्त्री है, उसी पर सब विश्वास करते हैं। इसलिये स्त्री ही पुरुष की श्रेष्ठ गति है। ‘पति संसार में हो या मर गया हो, अथवा अकेले ही नरक में पड़ा हो; पतिव्रता स्त्री ही सदा उसका अनुगमन करती है। ‘साध्वी स्त्री यदि पहले मर गयी हो तो परलोक में जाकर वह पति की प्रतीक्षा करती है और यदि पहले पति मर गया हो तो सती स्त्री उसका अनुसरण करतीहै। ‘राजन् ! इसीलिये सुशीला स्त्री का पाणिग्रहण करना सबके लिये अभीष्ट होता है; क्योंकि पति अपनी पतिव्रता स्त्री को इहलोक में तो पाता ही है, परलोक में भी प्राप्त करता है।
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