महाभारत आदि पर्व अध्याय 74 श्लोक 97-109

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चतु:सप्ततितम (74) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: चतु:सप्ततितम अध्‍याय: श्लोक 97-109 का हिन्दी अनुवाद

जो स्‍वयं ही अपने तुल्‍य पुत्र उत्‍पन्न करके उसका सम्‍मान नहीं करता, उसकी सम्‍पत्ति देवता नष्ट कर देते हैं और वह उत्तम लोकों नहीं जाता। पितरों पुत्र को कुल और वंश की प्रतिष्ठा बताया है, अत: पुत्र सब धर्मों में उत्तम है। इसलिये पुत्र का त्‍याग नहीं करना चाहिये। अपनी पत्नी से उत्‍पन्न एक और अन्‍य स्त्रियों से उत्‍पन्न लब्‍ध, क्रीत, पोषित तथा उपनयनादित से संस्‍कृत-ये चार मिलाकर कुल पांच प्रकार के पुत्र मनुजी ने बताये हैं। ये सभी पुत्र मनुष्‍यों को धर्म और कीर्ति की प्राप्ति कराने वाले तथा मन की प्रसन्नता को बढ़ाने वाले होते हैं। पुत्र धर्म रुपी नौका का आश्रय ले अपने पितरों का नरक से उद्धार कर देते हैं। अत: नरश्रेष्ठ ! आप अपने पुत्र का परित्‍याग न करें । पृथ्‍वीपते ! नरेन्‍द्रप्रवर ! आप अपने आत्‍मा, सत्‍य और धर्म का पालन करते हुए अपने सिर पर कपट का बोझ न उठावें। सौ कुंए खोदवाने की अपेक्षा एक बाबड़ी बनवाना उत्तम है, सौ बाबड़ियों की अपेक्षा एक यज्ञ कर लेना उत्तम है। सौ यज्ञ करने की अपेक्षा एक पुत्र को जन्‍म देना उत्तम है और सौ पुत्रों की अपेक्षा भी सत्‍य का पालन श्रेष्ठ है। एक हजार अश्वमेध यज्ञ एक ओर तथा सत्‍यभाषण का पुण्‍य दूसरी ओर यदि तराजू पर रक्‍खा जाय, तो हजार अश्वमेध यज्ञों की अपेक्षा सत्‍य का पलड़ा भारी होता है। राजन् ! सम्‍पूर्ण वेदों का अध्‍ययन और समस्‍त तीर्थों का स्नान भी सत्‍य वचन की समानता कर सकेगा या नहीं, इसमें संदेह ही है (क्‍योंकि सत्‍य उनसे भी श्रेष्ठ है)। सत्‍य के समान कोई धर्म नहीं है। सत्‍य से उत्तम कुछ भी नहीं है और झूठ से बढ़कर तीव्रतर पाप इस जगत् में दूसरा कोई नहीं है। राजन् ! सत्‍य परब्रह्म परमात्‍मा का स्‍वरुप है। सत्‍य सवसे बड़ा नियम है। अत: महाराज !आप अपनी सत्‍य प्रतिज्ञा को न छोड़िये। सत्‍य आपका जीवन संगी हो। यदि आपकी झूठ में ही आसक्ति है और मेरी बात पर श्रद्धा नहीं करते हैं तो मैं स्‍वयं ही चली जाती हूं। आप जैसे के साथ रहना मुझे उचित नहीं है। यह मेरा पुत्र है या नहीं, ऐसा संदेह होने पर बुद्धि ही इसका निर्णय करने वाली अथवा इस रहस्‍य पर प्रकाश डालने वाली है। चाल-ढाल, स्‍वर, स्‍मरण शक्ति, उत्‍साह, शील-स्‍वभाव, विज्ञान, पराक्रम, साहस, प्रकृतिभाव, आवर्त (भंवर) तथा रोमावली-जिसकी ये सब वस्‍तुऐं जिससे सर्वथा मिलती-जुलती हों, वह उसी का पुत्र है, इसमें संशय नहीं है। राजन् ! आपके शरीर से पूर्ण समानता लेकर यह बिम्‍ब की भांति प्रकट हुआ है और आपको ‘तात’ कहकर पुकार रहा है। आप इसकी आशा न तोड़ें। महाराज दुष्‍यन्‍त ! मैं एक बात कह देती हूं, आपके सहयोग के बिना भी मेरा यह पुत्र चारों समुद्रों से घिरी हुई गिरिराज हिमालय रूपी मुकुट से सुशोभित समूची पृथ्‍वी का शासन करेगा। देवराज इन्‍द्र का वचन है ‘शकुन्‍तले ! तुम्‍हारा पुत्र चक्रवर्ती सम्राट होगा।’ यह कभी मिथ्‍या नहीं हो सकता। यद्यपि देवदूत आदि बहुत-से साक्षी बताये गये हैं, तथापि इस समय वे क्‍या सत्‍य है और क्‍या असत्‍य–इसके विषय में कुछ नहीं कर रहे हैं। अत: साक्षी के अभाव में यह भाग्‍यहीन शकुन्‍तला जैसे आयी है, वैसे ही लौट जायगी। वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! राजा दुष्‍यन्‍त से इतनी बातें कहकर शकुन्‍तला वहां से चलने को उद्यत हुई। इतने में ही ॠत्विज, पुरोहित, आर्चाय और मन्त्रियों से घिरे हुए दुष्‍यन्‍त को सम्‍बोधित करते हुए आकाशवाणी हुई।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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