महाभारत आदि पर्व अध्याय 79 श्लोक 1-12

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एकोनाशीतितम (79) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: एकोनाशीतितमम अध्‍याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद

शुक्राचार्यद्वारा देवयानी को समझाना और देवयानी का असंतोष

शुक्राचार्य ने कहा- बेटी ! मेरी विद्या द्वन्‍द्वरहित है। मेरा ऐश्‍वर्य ही उसका फल है। मुझमें दीनता, शठता, कुटिलता और अधमपूर्ण बर्ताव नहीं है। देवयानी ! जो मनुष्‍य सदा दूसरों के कठोर वचन (दूसरों द्वारा की हुई अपनी निन्‍दा) को सह लेता है, उसने इस सम्‍पूर्ण जगत् पर विजय प्राप्‍त कर ली, ऐसा समझो । जो उभरे हुए क्रोध को घोड़े के समान वश में कर लेता है, वही सत्‍पुरुषों द्वारा सच्चा सारथि कहा गया है। किंतु जो केवल बागडोर या लगाम पकड़कर लटकता रहता है, वह नहीं। देवयानी ! जो उत्‍पन्न हुए क्रोध को अक्रोध (क्षमाभाव) के द्वारा मन से निकाल देती है, समझ लो, उसने सम्‍पूर्ण जगत् को जीत लिया । जैसे सांप पुरानी केंचुल छोड़ता है, उसी प्रकार जो मनुष्‍य उभड़ने वाले क्रोध को यहां क्षमा द्वारा त्‍याग देता है, वही श्रेष्‍ठ पुरुष कहा गया है । जो क्रोध को रोक लेता है, निन्‍दा सह लेता है और दूसरे के सताने पर भी दुखी नहीं होता, वही सब पुरुषों का सुदृढ़ पात्र है। जो मनुष्‍य सौ वर्षों तक प्रत्‍येक मास में बिना किसी थकावट के निरन्‍तर यज्ञ करता है और दूसरा जो किसी पर भी क्रोध नहीं करता , उन दोनो में क्रोध न करने वाला ही श्रेष्‍ठ है। क्रोधी के यज्ञ,दान और तप- सभी निष्‍फल होते हैं। अत: जो क्रोध नहीं करता, उसी पुरुष के यज्ञ, दान और तप महान् फल देने वाले होते हैं। जो क्रोध के वशीभूत हो जाता है, वह कभी पवित्र नहीं होता तथा तपस्‍या भी नहीं कर सकता। उसके द्वारा यज्ञ का अनुष्‍ठान भी सम्‍भव नहीं है और वह कर्म के रहस्‍य को भी नहीं जानता । इतना ही नहीं, उसके लोक और परलोक दोनो ही नष्ट हो जाते हैं। जो स्‍वभाव से ही क्रोधी है, उसके पुत्र, भृत्‍य, सुहृद्, मित्र, पत्‍नी, धर्म और सत्‍य- ये सभी निश्चय ही उसे छोड़कर दूर चले जायंगे। अबोध बालक और बालिकाएं अज्ञान वश आपस में जो वैर-विरोध करते हैं, उसका अनुकरण समझदार मनुष्‍यों को नहीं करना चाहिये; क्‍यों कि वे नादान बालक दूसरों के बलाबल को नहीं जानते । देवयानी ने कहा- पिताजी ! यद्यपि मैं अभी बालिका हूं फि‍र भी धर्म-अधर्म का भी अन्‍तर समझती हूं ।क्षमा और निन्‍दा की सबलता और निर्बलता का भी मुझे ज्ञान है। परंतु जो शिष्‍य होकर भी शिष्‍योचित बर्ताव नहीं करता, अपना हित चाहने वाले गुरु को उसकी धृष्‍टता क्षमा नहीं करनी चाहिये। इसलिये इन संकीर्ण आचार-विचार वाले दानवों के बीच निवास करना अब मुझे अचछा नहीं लगता। जो पुरुष दूसरों के सदाचार और कुल की निन्‍दा करते हैं, उन पाप पूर्ण विचार वाले मनुष्‍यों में कल्‍याण की इच्‍छा वाले विद्वान पुरुष को नहीं रहना चाहिये। जो लोग आचार, व्‍यवहार अथवा कुलीनता की प्रशंसा करते हों, उन साधु पुरुषों में ही निवास करना चाहिये और वही निवास श्रेष्ठ कहा जाता है। धनहीन मनुष्‍य भी यदि सदा अपने मन पर संयम रक्‍खे तो वे श्रेष्ठ हैं और धनवान् भी यदि दुराचारी तथा पापकर्मी हों, तो वे चाण्डाल के समान हैं। जो अकारण किसी के साथ द्वेष करते हैं और दूसरों की निन्‍दा करते रहते हैं, उनके बीच में सत्‍पुरुष का निवास नहीं होना चाहिये; क्‍यों कि पापियों के संग से मनुष्‍य पापात्‍मा हो जाता है। मनुष्‍य पाप अथवा पुण्‍य जिस में भी आसक्त होता है, उसी में उसकी दृढ़ प्रीति हो जाती है, इसलिये पाप कर्म में प्रीति नहीं करनी चाहिये। तात ! वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा ने जो अत्‍यन्‍त भयंकर दुर्वचन कहा है, वह मेरे हृदय को मथ रहा है, ठीक उसी तरह, जैसे अग्नि प्रकट करने की इच्‍छा वाला पुरुष अरणीकाष्ठ का मन्‍थन करता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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