महाभारत आदि पर्व अध्याय 82 श्लोक 14-27
द्वयशीतितम (82) अध्याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)
ययाति ने कहा- शर्मिष्ठे ! तुम दैत्यराज की सुशील और निर्दोष कन्या हो। मैं तुम्हें अच्छी तरह जानता हूं। तुम्हारे शरीर अथवा रुप में सुई की नोंक बराबर भी ऐसा स्थान नहीं है, जो निन्दा के योग्य हो। परंतु क्या करूं; जब मैंने देवयानी के साथ विवाह किया था, उस समय कविपुत्र शुक्राचार्य ने मुझसे स्पष्ट कहा था कि ‘वृषपर्वा की पुत्री इस शर्मिष्ठा को अपनी सेज पर न वुलाना’। शर्मिष्ठा ने कहा्- राजन् ! परिहास युक्त वचन असत्य हों तो भी वह हानिकारक नहीं होता। अपनी स्त्रियों के प्रति, विवाह के समय, प्राण संकट के समय तथा सर्वस्व का अपहरण होते समय यदि कभी विवश होकर असत्य भाषण करना पड़े तो वह दोष कारक नहीं होता। ये पांच प्रकार के असत्य पाप शून्य बताये गये हैं। महाराज ! किसी निर्दोष प्राणी का प्राण बचाने के लिये गवाही देते समय किसी के पूछने पर अन्यथा (असत्य) भाषण करने वाले के यदि कोई पतित कहता है तो उसका कथन मिथ्या है। परंतु जहां अपने और दूसरे दोनों के ही प्राण बचाने का प्रसंग उपस्थित हो,वहां केवल अपने प्राण बचाने के लिये मिथ्या बोलने वाले का असत्य भाषण उसका नाश कर देता है। ययाति बोले- देवि ! सब प्राणियों के लिये राजा ही प्रमाण हैं। वह यदि झूठ बोलने लगे, तो उसका नाश हो जाता है। अत: अर्थ-संकट में पड़ने पर भी मैं झूठा काम नहीं कर सकता। शर्मिष्ठा ने कहा-राजन् ! अपना पति और सखी का पति दोनों बराबर माने गये हैं। सखी के साथ ही उसकी सेवा में रहने वाली दूसरी कन्याओं का भी विवाह हो जाता है। मेरी सखी ने आपको अपना पति बनाया है, अत: मैंने भी बना लिया। राजन् ! महर्षि शुक्राचार्य ने देवयानी के साथ मुझे भी यह कहकर आपको समर्पित किया है कि तुम इसका भी पालन-पोषण और आदर करना। आप उनके वचन को सुवर्ण, मणि, रत्न, वस्त्र, आभूषण, गौ और भूमि आदि दान करते हैं, वह बाह्य दान कहा गया है। वह शरीर के आश्रित नहीं है। पुत्रदान और शरीर दान अत्यन्त कठिन है। नहुषनन्दन ! शरीर दान से उपर्युक्त सब दान सम्पन्न हो जाता है। राजन् ! ‘जिसकी जैसी इच्छा होगी उस-उस पुरुष को मैं मुंहमांगी वस्तु दूंगा’ ऐसा कहकर आपने नगर में जो तीनों समय दान की घोषणा करायी है, वह मेरी प्रार्थना ठुकरा देने पर झूठी सिद्ध होगी। वह सारी घोषणा ही व्यर्थ समझी जायगी। राजेन्द्र ! आप कुबेर की भांति अपनी उस घोषणा को सत्य कीजिये। ययाति बोले- याचकों को उनकी अभीष्ट वस्तुएं दी जायं, ऐसा मेरा व्रत है। तुम भी मुझसे अपने मनोरथ की याचना करती हो; अत: बताओ मैं तुम्हारा कौन-सा प्रिय कार्य करूं? शर्मिष्ठा ने कहा-राजन् ! मुझे अधर्म से बचाइये और धर्म का पालन कराइये । मैं चाहती हूं, आपसे संतानवती होकर इस लोक में उत्तम धर्म का आचरण करूं। महाराज ! तीन व्यक्ति धन के अधिकारी नहीं हैं- पत्नी, दास और पुत्र। ये जो धन प्राप्त करते हैं वह उसी का होता है जिसके अधिकार में ये हैं। अर्थात पत्नी के धन पर पति का , सेवक के धन पर स्वामी का ओर पुत्र के धन पर पिता का अधिकार होता है। मैं देवयानी की सेविका हूं और वह आपके अधीन है; अत: राजन् ! वह और मैं दोनो ही आपके सेवन करने योग्य हैं। अत: मेंरा सेवन कीजिये। वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! शर्मिष्ठा के ऐसा कहने पर राजा ने उसकी बातों को ठीक समझा। उन्होंने शर्मिष्ठा का सत्कार किया और धर्मानुसार उसे अपनी भार्या बनाया । फिर शर्मिष्ठा के साथ समागम किया और इच्छानुसार कामोपभोग करके एक दूसरे का आदर-सत्कार करने के पश्चात दोनों जैसे आये थे वैसे ही अपने-अपने स्थान पर चले गये। सुन्दर भौंह तथा मनोहर मुसकान वाली शर्मिष्ठा ने उस समागम में नृप श्रेष्ठ ययाति से पहले-पहल गर्भ धारण किया। जनमेजय ! तदनन्तर समय आने पर कमल के समान नेत्रों वाली शर्मिष्ठा ने देव बालक- जैसे सुन्दर एक कमलनयन कुमार को उत्पन्न किया।
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