महाभारत आदि पर्व अध्याय 83 श्लोक 35-42
त्र्यशीतितम (83) अध्याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)
ब्रह्मन् ! मेरा यह व्रत है कि मुझसे कोई जो भी वस्तु मांगे, उसे वह अवश्य दे दूंगा। आपके ही द्वारा मुझे सौंपी हुई शर्मिष्ठा इस जगत् में दूसरे किसी पुरुष को अपना पति बनाना नहीं चाहती थी। अत: उसकी इच्छा पूर्ण करना धर्म समझकर मैंने वैसा किया है। आप इसके लिये मुझे क्षमा करें। भृगुश्रेष्ठ ! इन्हीं सब कारणों का बिचार करके अधर्म के भय से उद्विग्न हो मैं शर्मिष्ठा के पास गया था। शुक्राचार्य ने कहा- राजन् ! तुम्हें इस विषय में मेरे आदेश की भी प्रतीक्षा करनी चाहिये थी; क्योंकि तुम मेरे अधीन हो। नहुषनन्दन ! धर्म में मिथ्या आचरण करने वाले पुरुष को चोरी का पाप लगता है। वैशम्पावयनजी कहते हैं- क्रोध में भरे हुए शुक्राचार्य के शाप देने पर नहुष पुत्र राजा ययाति उसी समय पूर्वावस्था (यौवन) का परित्याग करके तत्काल बूढ़े हो गये। ययाति बोले- भृगुश्रेष्ठ ! मैं देवयानी के साथ युवावस्था में रहकर तृप्त नहीं हो सका हूं; अत: ब्रह्मन् ! मुझ पर ऐसी कृपा कीजिये, जिससे यह बुढ़ापा मेरे शरीर में प्रवेश न करे। शुक्राचार्यजी ने कहा- भूमिपाल ! मैं झूठ नहीं बोलता; बूढे़ तो तुम हो ही गये; किंतु तुम्हें इतनी सुविधा देता हूं कि यदि चाहो तो किसी दूसरे से जवानी लेकर इस बुढ़ापा को उसके शरीर में डाल सकते हो। ययाति बोले- ब्रह्मन् ! मेरा जो पुत्र अपनी युवावस्था मुझे दे वही पुण्य और कीर्ति का भागी होने के साथ ही मेरे राज्य का भी भागी हो। आप इसका अनुमोदन करें। शुक्राचार्य ने कहा- नहुषनन्दन ! तुम भक्तिभाव से मेरा चिन्तन करके अपनी वृद्धावस्था का इच्छानुसार दूसरे के शरीर में संचार कर सकोगे। उस दशा में तुम्हें पाप भी नहीं लगेगा। जो पुत्र तुम्हें (प्रसन्नता पूर्वक) अपनी युवावस्था देगा, वही राजा होगा, साथ ही दीर्घायु, यशस्वी तथा अनेक सन्तानों से युक्त होगा।
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