महाभारत आदि पर्व अध्याय 92 श्लोक 13-19
द्विनवतितम (92) अध्याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)
जो ब्राह्मण नहीं हैं, उसे दीन याचक कभी जीवन नहीं बिताना चाहिये। याचना तो विद्या से दिग्विजय करने वाले विद्वान् ब्राह्मण की पत्नी है अर्थात् ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण को ही याचना करने का अधिकार है। मुझे उत्तम सत्कर्म करने की इच्छा है; अत: ऐसा कोई कार्य कैसे कर सकता हूं, जो पहले कभी नहीं किया हो। प्रतर्दन बोले- वाञ्छनीय रुप वाले श्रेष्ठ पुरुष ! मैं प्रतर्दन हूं और आपसे पूछता हूं, यदि अन्तरिक्ष अथवा स्वर्ग में मेरे भी लोक हों तो बताइये। मैं आपको पारलौकिक धर्म का ज्ञाता मानता हूं। ययाति ने कहा-नरेन्द्र ! आपके तो बहुत लोक हैं, यदि एक-एक लोक में सात-सात दिन रहा जाय तो भी उनका अन्त नहीं है। वे सब-के-सब अमृत के झरने बहाते हैं एवं घृत (तेज) से युक्त हैं। उनमें शोक का सर्वथा अभाव है। वे सभी लोक आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। प्रतर्दन बोले-महाराज ! वे सभी लोक मैं आपको देता हूं, आप नीचे न गिरें। जो मेरे लोक हैं वे सब आपके हो जायं। ये अन्तरिक्ष में हों या स्वर्ग में, आप शीघ्र मोह रहित होकर उनमें चले जाइये । ययाति ने कहा- राजन् ! कोई भी राजा समान तेजस्वी होकर दूसरे से पुण्य तथा योग-क्षेम की इच्छा न करे। विद्वान् राजा दैववश भारी आपत्ति में पड़ जाने पर भी कोई पापमय कार्य न करे। धर्म पर दृष्टि रखने वाले राजा को उचित है कि वह प्रयत्न पूर्वक धर्म और यश के मार्ग पर ही चले। जिसकी बुद्धि धर्म में लगी हो उस मेरे-जैसे मनुष्य को जान-बूझकर ऐसा दीनता पूर्ण कार्य नहीं करना चाहिये, जिसके लिये आप मुझसे कह रहे हैं। जो शुभ कर्म करने की इच्छा रखता है, वह ऐसा काम नहीं कर सकता, जिसे अन्य राजाओं ने नहीं किया हो। जो धर्म और अधर्म का भलीभांति निश्चय करके कर्तव्य और अकर्तव्य के विषय में सावधान होकरविचरता है, वही राजा बुद्धिमान्, सत्यप्रतिज्ञ और मनस्वी है। वह अपनी महिमा से लोकपाल होता है। जब धर्मकार्य में संशय हो अथवा जहां न्यायत: काम और अर्थ दोनों आकर प्राप्त हों, वहां पहले धर्मकार्य का ही सम्पादन करना चाहिये, अर्थ और काम का नहीं। यही धर्म है। इस प्रकार की वातें कहने वाले राजा ययाति से नृपश्रेष्ठ वसुमान् बोले।
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