महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 20 श्लोक 22-38
विंश (20) अध्याय: आश्रमवासिक पर्व (आश्रमवास पर्व)
राजन् ! तदनन्तर समस्त ब्राह्मण समुदाय ने नारद जी का विशेष पूजन किया । राजा धृतराष्ट्र की प्रसन्नता से उस समय सब लोगों को बारंबार हर्ष हो रहा था। उन सभी श्रेष्ठ ब्राह्मणों ने नारद जी के पूर्वोक्त वचन की भूरि-भूरि प्रशंसा की । तत्पश्चात् राजर्षि शतयूप ने नारद जी से इस प्रकार कहा - ‘महातेजस्वी देवर्षे ! बडे़ हर्ष की बात है कि आपने कुरूराज धृतराष्ट्र की, यहाँ आये हुए सब लोगों की और मेरी भी तपस्या विषयक श्रद्धा को अधिक बढ़ा दिया है। ‘लोकपूजित देवर्षे ! राजा धृतराष्ट्र के विषय में मुझे कुछ कहने या पूछने की इच्छा हो रही है । अपनी उस इच्छा को मैं बता रहा हूँ, सुनिये। ‘ब्रह्मर्षे ! आप सम्पूर्ण वृत्तान्तों के तत्त्वज्ञ हैं । आप योगयुक्त होकर अपनी दिव्य दृष्टि से मनुष्यों को जो नाना प्रकार की गति प्राप्त होती है, उसे प्रत्यक्ष देखते हैं। ‘महामुने ! आपने अनेक राजाओं की इन्द्रलोक प्राप्ति का वर्णन किया; किंतु यह नहीं बताया कि ये राजा धृतराष्ट्र किस लोक को जायँगे। ‘प्रभो ! इन नरेश को जो स्थन प्राप्त होने वाला है, उसे भी मैं आपके मुख से सुनना चाहता हूँ । वह स्थान कैसा होगा और कब प्राप्त होगा - यह मुझे ठीक-ठीक बताइये। शतयूपके इस प्रकार प्रश्न करने पर दिव्यदर्शी महातपस्वी देवर्षि नारद ने उस सभा में सबके मन को प्रिय लगने वाली यह बात कही। नारद जी बोले - राजर्षे ! एक दिन मैं दैवेच्छा से घूमता-फिरता इन्द्रलोक में चला गया और वहाँ जाकर शचीपति इन्द्र से मिला । वहीं मैंने राजा पाण्डु को भी देखा था। नरेश्वर ! वहाँ राजा धृतराष्ट्र की ही बातचीत चल रही थी । वे जो तपस्या करते हैं, इनके इस दुष्कर तप की चर्चा हो रही थी। उस सभा में साक्षात् इन्द्र के मुख से मैंने सुना था कि इन राजा धृतराष्ट्र की आयु की जो अन्तिम सीमा है, उसके पूर्ण होने में अब केवल तीन वर्ष ही शेष रह गये हैं। उसके समाप्त होने पर ये राजा धृतराष्ट्र गान्धारी के साथ कुबेर के लोक में जायँगे ओर वहाँ राजाधिराज कुबेर से सम्मानित हो इच्छानुसार चलने वाले विमान पर बैठकर दिव्य वस्त्राभूषणों से विभूषित हो देव, गन्धर्व तथा राक्षसों के लोकों में स्वेच्छानुसार विचरते रहेंगे । ऋषिपुत्र महाभाग धर्मात्मा धृतराष्ट्र के सारे पाप इनकी तपस्या के प्रभाव से भस्म हो जायँगे । राजन् ! तुम मुझसे जो बात पूछ रहे थे, उसका उत्तर यही है। यह देवताओं का अन्यन्य गुप्त विचार है। परंतु आप लोगों पर प्रेम होने के कारण मैंने इसे आपके सामने प्रकट कर दिया है । आप लोग वेद के धनी हैं और तपस्या से निष्पाप हो चुके हैं (अतः आपके सामने इस रहस्य को प्रकट करने में कोई हर्ज नहीं है)। वैशम्पायन जी कहते हैं - राजन् ! देवर्षि के ये मधुर वचन सुनकर वे सब लोग बहुत प्रसन्न हुए और राजा धृतराष्ट्र को भी इससे बड़ा हर्ष हुआ। इस प्रकार वे मनीषी महर्षिगण अपनी कथाओं से धृतराष्ट्र को संतुष्ट करके सिद्ध गति का आश्रय ले इच्छानुसार विभिन्न स्थानों को चले गये।
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