महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 30 श्लोक 17-24
त्रिंश (30) अध्याय: आश्रमवासिक पर्व (पुत्रदर्शन पर्व)
ब्रह्मर्षे ! मुझ मूढ़ नारी ने अपने पुत्र को पहचान लिया तो भी उसकी उपेक्षा कर दी । यह भूल मुझे शोकाग्नि से दग्ध करती रहती है । आप को तो यह बात अच्छी तरह ज्ञात ही है। भगवान ! मेरा यह कार्य पाप हो या पुण्य, मैंने इसे आप के सामने प्रकट कर दिया। आप मेरे उस दाहक शोक को दूर कर दें। निष्पाप मुनिश्रेष्ठ ! इन महाराज के हृदय जो बात है, वह भी आप को विदित ही है । ये अपने मनोरथ को आज ही प्राप्त करें, ऐसी कृपा कीजिये। कुन्ती केइस प्रकार कहने पर वेदवेत्ताओें में श्रेष्ठ महर्षि व्यास ने कहा-‘बेटी ! तुम ने जो कुछ कहा है, वह सब ठीक है, ऐसी ही होनहार थी। ‘इस में तुम्हारा कोई अपराध नहीं है; क्योंकि उस समय तुम अभी कुमारी बालिका थी । देवता लोग अणिमा आदि ऐश्वर्यों से सम्पन्न होते हैं; अतः दूसरे के शरीरों में प्रविष्ट हो जाते हैं। ‘बहुत-से ऐसे देव समुदाय हैं, जो संकल्प,वचन,दृष्टि,स्पर्श तथा समागम-इन पाँचों प्रकारों से पुत्र उत्पन्न करते हैं। ‘कुन्ती ! देव धर्म के द्वारा मनुष्य धर्म दूषित नहीं होता, इस बात को जान लो । अब तुम्हारी मानसिक चिन्ता दूर हो जानी चाहिये। ‘बलवानों का सब कुछ ठीक या लाभदायक है । बलवानों का सारा कार्य पवित्र है । बलवानों का सब कुछ धर्म है और बलवानों के लिये सारी वस्तुएँ अपनी हैं’।
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