महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 34 श्लोक 1-12

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चतुस्त्रिंश (34) अध्याय: आश्रमवासिक पर्व (पुत्रदर्शन पर्व)

महाभारत: आश्रमवासिक पर्व: चतुस्त्रिंश अध्याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद

मरे हुए पुरूषों का अपने पूर्व शरीर से ही यहाँ पुनः दर्शन देना कैसे सम्भव है, जनमेजय की इस शंका का वैशम्पायन द्वारा समाधान

सौति कहते हैं –अपने समस्त पितामहों के इस प्रकार परलोक से आने और जाने का वृत्तान्त सुनकर विद्वान् राजा जनमेजय बड़े प्रसन्न हुए। प्रसन्न होकर वे पुनरागमन के विषय में संदेह करते हुए बोले-‘भला, जिन्होंने अपने शरीर का परित्याग कर दिया है, उन पुरूषों का उसी रूप् में दर्शन कैसे हो सकता है ?’ उनके ऐसा कहने पर वक्ताओं में श्रेष्ठ प्रतापी व्यासशिष्य विप्रवर वैशम्पायन ने उन राजा जनमेजय से कहा। वैशम्पायन जी बोले– नरेश्वर ! यह सिद्धान्त है कि समस्त कर्मों का फल भोग किये बिना उनका नाश नहीं होता । जीवात्मा को जो शरीर और नाना प्रकार की आकृतियाँ प्राप्त होती हैं, वे सब कर्मजनित ही हैं। भूतनाथ भगवान के आश्रय से पाँचों महाभूत हमारे शरीरों की अपेक्षा नित्य हैं। उन नित्‍य महाभूतों का अनित्‍य शरीरों के साथ संसार दशा में नित्‍य संयोग है । अनित्य शरीरों का नाश होने पर इन नित्य महाभूतों का उन से वियोगमात्र होता है, विनाश नहीं। कर्तृत्व–अभिमान के बिना अनायास किये जाने वाले कर्म का जो फल प्राप्त होता है, वह सत्य और श्रेष्ठ है अर्थात् मुक्तिदायक है । कर्तृत्व-अभिमान और परिश्रम पूर्वक किये हुए कर्मों से बँधा हुआ जीवात्मा सुख-दुःख का उपभोग करता है। क्षेत्रज्ञ इस प्रकार कर्मों से संयुक्त होकर भी वास्तव में अविनाशी ही है, यह निश्चित है । किंतु भूतों के साथ तादात्म्य भाव स्वीकार कर लेने के कारण वह ज्ञान के बिना उन से अलग नहीं हो पाता। जब तक शरीर के प्रारब्ध-कर्मों का क्षय नहीं होता तब तक उस जीव की उस शरीर से एकरूपता रहती है । जब कर्मों का क्षय हो जाता है, तब वह दूसरे स्वरूप को प्राप्त हो जाता है। भूत-इन्द्रिय आदि नाना प्रकार के पदार्थ शरीर को पाकर एकत्व को प्राप्त हो गये हैं । जो देह आदि को आत्मा से पृथक् जानते हैं, उन योगियों के लिये वे सारे पदार्थ नित्य आत्मस्वरूप हो जाते हैं। अश्वमेध यज्ञ में जब अश्व का वध किया जाता है, उस समय जो ‘सूर्य ते चक्षुः वातं प्राणः’ (तुम्हारे नेत्र सूर्य को और प्राण वायु को प्राप्त हों) इत्यादि मन्त्र पढ़े जाते हैं, उन से यह सूचित होता है कि देह धारियों के प्राण-इन्द्रियाँ निश्चित रूप से सर्वदा लोकान्तर में स्थित होती हैं । (अतः परलोक में गयेहुए जीवों का वैसे ही रूप से इस लोक में पुनः प्रकट हो जाना असम्भव नहीं है)। पृथ्वी नाथ ! तुम्हें प्रिय लगे तो मैं तुम्हारे हित की बात बताता हूँ । यज्ञ आरम्भ करते समय तुम ने देवयान-मार्गों की बात सुनी होगी । वे ही तुम्हारे योग्य हैं। जब तुम ने यज्ञ का अनुष्ठान आरम्भ किया, तभी से देवता लोग तुम्हारे हितैषी सुहृद् हो गये । जब इस प्रकार देवता मित्रभाव से युक्‍त होते हैं,तब वे जीवों को लोकान्तर की प्राप्ति कराने में समर्थ होने के कारण उन पर अनुग्रह करके उन्हें अभीष्ट लोकों की प्राप्ति करा देते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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