महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 5 श्लोक 33-43
पंचम (5) अध्याय: आश्रमवासिक पर्व (आश्रमवास पर्व)
‘तत्पश्चात् सैनिकों का हर्ष और उत्साह बढ़ाते हुए उनसे मिलना चाहिये । दूतों और जासूसों से मिलने के लिये तुम्हारे लिये सर्वोत्तम समय संध्याकाल है। ‘पहरभर रात बाकी रहते ही उठकर अगले दिन के कार्यक्रम का निश्चय कर लेना चाहिये । आधी रात और दोपहर के समय तुम्हें स्वयं घूम फिरकर प्रजा की अवस्था का निरीक्षण करना उचित है। ‘प्रचुर दक्षिणा देने वाले भरतश्रेष्ठ ! काम करने के लिये सभी समय उपयोगी हैं तथा तुम्हें समय समय पर सुन्दर वस्त्राभूषणों से अलंकृत रहना चाहिये। ‘तात ! चक्र की भाँति सदा कार्यों का क्रम चलता रहता है, यह देखने में आता है । महाराज ! नाना प्रकार के कोष का संग्रह करने के लिये तुम्हें सदा न्यायानुकूल प्रयत्न करना चाहिये । इसके विपरित अन्यायपूर्ण प्रयत्न को त्याग देना चाहिये। ‘नरेश्वर ! जो राजाओं के छिद्र देखा करते हैं, ऐसे राजविद्रोही शत्रुओं का गुप्तचरों द्वारा पता लगाकर विश्वसनीय पुरूषों द्वारा उन्हें दूर से ही मरवा डालना चाहिये। ‘कुरूश्रेष्ठ ! पहले काम देखकर सेवकों को नियुक्त करना चाहिये और अपने आश्रित मनुष्य योग्य हों या अयोग्य, उनसे काम अवश्य लेना चाहिये। ‘तात ! तुम्हारे सेनापति को दृढ़प्रतिज्ञ, शूरवीर, क्लेश सह सकने वाला, हितैषी, पुरूषार्थी और स्वामिभक्त होना चाहिये। ‘पाण्डुनन्दन ! तुम्हारे राज्य के अंदर रहने वाले जो कारीगर और शिल्पी तुम्हारा काम करें, तुम्हें उनके भरण पोषण का प्रबन्ध अवश्य करना चाहिये; जैसे गधों और बैलों से काम लेने वाले लोग उन्हें खाने का देते हैं। ‘युधिष्ठिर ! तुम्हें सदा ही स्वजनों और शत्रुओं के छिद्रों पर दृष्टि रखनी चाहिये। ‘जनेश्वर ! अपने देश में उत्पन्न होने वाले पुरूषों में से जो लोग अपने कार्य में विशेष कुशल और हितैषी हों, उन्हें उनके योग्य आजीविका देकर अनुग्रहपूर्वक अपनाना चाहिये । विद्वान् राजा को उचित है कि वह गुणार्थी मनुष्य के गुण बढ़ाने का प्रयत्न करता रहे । उनके सम्बन्ध में तुम्हें कोई विचार नहीं करना चाहिये । वे तुम्हारे लिये सदा पर्वत के समान अविचल सहायक सिद्ध होंगे‘।
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