महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 28 श्लोक 1-12
अष्टाविंश (28) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)
ज्ञानी पुरुष की स्थिति तथा अध्वर्यु और यति का संवाद[१]
ब्राह्मण कहते हैं- मैं न तो गन्धें को सूघँता हूँ, न रसों का आस्वादन करता हूँ, न रूप को देखता हूँ, न किसी वस्तु का स्पर्श करता हूँ, न नाना प्रकार के शब्दों को सुनता हूँ औ न कोई संकल्प ही करता हूँ। स्वभाव ही अभीष्ट पदार्थों की कामना रखता है, स्वभाव ही सम्पूर्ण द्वेष्य वस्तुओं के प्रति द्वेष करता है। जैसे प्राण और अपान स्वभाव से ही प्राणियों के शरीरों में प्रविष्ट होकर अन्न पाचन आदि का कार्य करते रहते हैं, उसी प्रकार स्वभाव से ही राग और द्वेष की उत्पतित होती है। तात्पर्य यह कि बुद्धि आदि इन्द्रियाँ स्वभाव से ही पदार्थों में बर्त रही हैं। इन बाह्य इन्द्रियों और विषयों से भिन्न जो स्वप्न और सुषुप्ति के वासनामय विषय एवं इन्द्रियाँ हैं तथा उनमें भी जो नित्यभाव हैं, उनसे भी विलक्षण जो भूतात्मा है, उसको शरीर के भीतर योगीजन देख पाते हैं। उसी भूतात्मा में स्थित हुआ मैं कहीं किसी तरह भी काम, क्रोध, जरा और मृत्यु से ग्रस्त नहीं होता। मैं सम्पूर्ण कामनाओं में से किसी की कामना नहीं करता। समस्त दोषों से भी कभी द्वेष नहीं करता। जैसे कमल के पत्तों पर जल बिन्दु का लेप नहीं होता, उसी प्रकार मेरे स्वभाव में राग और द्वेवष का स्पर्श नहीं है। जिनका स्वभाव बहुत प्रकार का है, उन इन्द्रिय आदि को देखने वाले इस नित्यस्वरूप आत्मा के लिये सब भोग अनित्य हो जाते हैं। अत: वे भोगसमुदाय उस विद्वान् को उसी प्रकार कर्मों में लिप्त नहीं कर सकते, जैसे आकाश में सूर्य की किरणों का समुदाय सूर्य को लिप्त नहीं कर सकता। यशस्विनि! इस विषय में अध्वर्यु यति के संवादरूप प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है, तुम उसे सुनो। किसी यज्ञ कर्म में पुशु का प्रोक्षण होता देख वहीं बैठे हुए यति ने अध्वर्यु से उसकी निन्दा करते हुए कहा- ‘यह हिंसा है (अत: इससे पाप होगा)’। अध्वर्यु ने यति को इस प्रकार उत्तर दिया- ‘यह बकरा नष्ट नहीं होगा। यदि ‘पशुर्वै नीयमान:’ इत्यादि श्रुति सत्य है तो यह जीवन कल्याण का ही भागी होगा। ‘इसके शरीर का जो पार्थिव भाग है, वह पृथ्वी में विलीन हो जायगा। इसका जो कुछ भी जलीय भाग हैं, वह जल में प्रविष्ट हो जायगा। ‘नेत्र सूर्य में, कान दिशाओं में और प्राण आकाश में ही लय को प्राप्त होगा। शास्त्र की आज्ञा के अनुसार बर्ताव करने वाले मुझ को कोई दोष नहीं लगेगा’। यति ने कहा- यदि तुम बकरे के प्राणों का वियोग हो जाने पर भी उसका कल्याण ही देखते हो, तब तो यह यज्ञ उस बकरे के लिये ही हो रहा है। तुम्हारा इस यज्ञ से क्या प्रयोजन है?। श्रुति कहती है ‘पशो! इस विषय में तुझे तेरे भाई, पिता, माता और सखा की अनुमति प्राप्त होनी चाहिये।’ इस श्रुति के अनुसार विशेषत: पराधीन हुए इस पशु को ले जाकर इसके पिता माता आदि से अनुमति लो (अन्यथा तुझे हिंसा का दोष अवश्य प्राप्त होगा)।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यह अध्याय क्षेपक हो तो कोई आश्चर्य नहीं, क्योंकि इसमें बात कही गयी है कि बुद्धि और इन्द्रियों में राग द्वेश के रहते हुए भी विद्वान कर्मों में लिप्त नहीं होता और यज्ञ में पशु हिंसा का दोष नही लगता। किंतु यह कथन युक्ति विरूद्ध है।