महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 32 श्लोक 1-17

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द्वात्रिंश (32) अध्‍याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: द्वात्रिंश अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


ब्राह्मणरूप धारी धर्म और जनक का ममत्व त्यागविषयक संवाद

ब्राह्मण ने कहा- भामिनि! इसी प्रसंग में एक ब्राह्मण और राजा जनक के संवादरूप प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है। एक समय राजा नजक ने किसी अपराध में पकड़े हुए ब्राह्मण को दण्ड देते हुए कहा- ‘ब्रह्मन्! आप मेरे देश से बाहर चले जाइये’। यह सुनकर ब्राह्मण ने उस श्रेष्ठ राजा को उत्तर दिया- ‘महाराज! आपके अधिकार में जितना देश है, उसकी सीमा बताइये। ‘सामर्थ्यशाली नरेश! इस बात को जानकर मैं दूसरे राजा के राज्य में निवास करना चाहता हूँ और शास्त्र के अनुसार आपकी आज्ञा का पालन करना चाहता हूँ’। उस यशस्वी ब्राह्मण के ऐसा कहने पर राजा जनक बार-बार गरम उच्छ्वास लेेने लगे, कुछ जवाब न दे सके। वे अमित तेजस्वी राजा जनक बैठे ुिए विचार कर रहे थे, उस समय उनको उसी प्रकार मोह ने सहसा घेर लिया जैसे राहु ग्रह सूर्य को घेर लेता है। जब राजा जनक विश्राम कर चुके और उनके मोह का नाश हो गया, तब थोड़ी देर चुप रहने के बाद वे ब्राह्मण से बोले। जनक ने कहा- ब्रह्मन्! यद्यपि बाप-दादों के समय से ही मिथिला प्रान्त के राज्य पर मेरा अधिकार है, तथापि जब मैं विचार दृष्टि से देखता हूँ तो सारी पृथ्वी में खोजने पर भी कहीं मुझे अपनादेश नहीं दिखायी देता। जब पृथ्वी पर अपने राज्य का पता न पा सका तो मैंने मिथिला में खोज की। जब वहाँ से भी निराशा हुई तो अपनी प्रजा पर आपे अधिकार का पता लगाया, किंतु उन पर भी अपने अधिकार का निश्चय न हुआ, तब मुझे मोह हो गया। फिर विचार के द्वारा उस मोह का नाश होने पर मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि कहीं भी मेरा राज्य नहीं है अथवा सर्वत्र मेरा ही राज्य है। एक दृष्टि से यह शरीर भी मेरा नहीं है और दूसरी दृष्टि से यह सारी पृथ्वी ही मेरी है। यह जिस तरह मेरी है, उसी तरह दूसरों की भी है- ऐसा मैं मानता हूँ। इसलिये द्विजोत्तम! अब आपकी जहाँ इच्छा हो, रहिये एवं जहाँ रहें, उसी स्थान का उपभोग कीजिये। ब्राह्मण ने कहा- राजन्! जब बाप-दादों के समय से ही मिथिला प्रान्त के राज्य पर आपका अधिकार है, तब बताइये किस बुद्धि का आश्रय लेकर आपने इसके प्रति अपनी ममता को त्या दिया है? किस बुद्धि का आश्रय लेकर आप सर्वत्र अपना ही राज्य मानते हैं और किस तरह कहीं भी अपना राज्य नहीं समझेते एवं किस तरह सारी पृथ्वी को ही अपना देश समझते हैं? जनक ने कहा- ब्राह्मन्! इस संसार में कर्मों के अनुसार प्राप्त होने वाली सभी अवस्थाएँ आदि अन्तवाली हैं, यह बात मुझे अच्छी तरह मालूम है। इसलिये मुझे ऐसी कोई वस्तु नहीं प्रतीत होती जो मेरी हो सके। वेद भी कहता है- ‘यह वस्तु किसकी है? यह किसका धन है?* (अर्थात् किसी का नहीं है)’ इसलिये जब मैं अपनी बुद्धि से विचार रकता हूँ, तब कोई भी वस्तु ऐसी नहीं जान पड़ती, जिससे अपनी कह सकें। इसी बुद्धि का आश्रय लेकर मैंने मिथिला के राज्य से अपना ममत्व हटा लिया है। अब जिस बुद्धि का आश्रय लेकर मैं सर्वत्र अपना ही राज्य समझता हूँ, उसको सुनो।












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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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