महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 43 श्लोक 24-42
त्रिचत्वारिंश (43) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)
चिन्तन मन का और निश्चय बुद्धि का लक्षण है, क्योंकि मनुष्य इस जगत में मन के द्वारा चिन्तन की हुई वस्तुओं का बुद्धि से ही निश्चय करते हैं, निश्चय के द्वारा ही बुद्धि जानने में आती है, इसमें संदेह नही है। मन का लक्षण ध्यान है और श्रेष्ठ पुरुष का लक्षण बाहर से व्यक्त नहीं होता (वह स्वसवेद्य हुआ करता है)। योग का लक्षण प्रवृत्ति और संन्यास का लक्षण ज्ञान है। इसलिये बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि वह ज्ञान का आश्रय लेकर यहाँ सन्यास ग्रहण करे। ज्ञानयुक्त संन्यास मौत और बुढ़ापा को लाँघकर सब प्रकार के द्वन्द्वदों से परे हो अज्ञानान्धकार के पार पहुँचकर परमगति को प्राप्त होता है। महर्षियो! यह मैंने तुम लोगों से लक्षणों सहित धर्म का विधिवत् वर्णन किया। अब यह बतला रहा हूँ कि किस गुण को किस इन्द्रिय से ठीक-ठीक ग्रहण किया जाता है। पृथ्वी का जो गन्ध नामक गुण है, उसका नासिका के द्वारा ग्रहण होता है ओर नासिका में स्थित वायु उस गन्ध का अनुभव कराने में सहायक होती है। जल का स्वाभाविक गुण रस है, जिसका जिह्वा के द्वारा ग्रहण किया जाता है और जिह्वा में स्थित चन्द्रमा उस रस के आस्वादन में सहायक होता है। तेज का गुण रूप है और वह नेत्र में स्थित सूर्य देवता की सहायता से नेत्र के द्वारा सदा देखा जाता है। वायु का स्वाभाविक गुण स्पर्श है, जिसका त्वचा के द्वारा ज्ञान होता है और त्वचा में स्थित वायुदेव उस स्पर्श का अनुभव कराने में सहायक होता है। आकाश के गुण शब्द का कानों के द्वारा ग्रहण होता है और कान में स्थित सम्पूर्ण दिशाएँ शब्द के श्रवण में सहायक बतायी गयी हैं। मन का गुण चिन्तन है, जिसका बुद्धि के द्वारा ग्रहण किया जाता है और ह्रदय में स्थित चेतन (आत्मा) मन के चिन्तन कार्य में सहायता देता है। निश्चय के द्वारा बुद्धि का और ज्ञान के द्वारा महत्तत्व का ग्रहण होता है। इनके कार्यों से ही इनकी सत्ता का निश्चय होता है और इसी से इन्हें व्यक्त माना जाता है, किंतु वास्वत में तो अतीन्द्रिय होने के कारण ये बुद्धि आदि अव्यक्त ही हैं, इसमें संशय नहीं है। नित्य क्षेत्रज्ञ आत्मा का कोई ज्ञापन लिंग नहीं है, क्योंकि वह (स्वयंप्रकाश और) निर्गुण है। अत: क्षेत्रज्ञ अलिंग (किसी विशेष लक्षण से रहित) है, अत: केवल ज्ञान ही उसका लक्षण (स्वरूप) माना गया है। गुणों की उत्पत्ति और लय के कारण भूत अव्यक्त प्रकृति को क्षेत्र कहते हैं। मैं उसमें संलग्न होकर सदा उसे जानता और सुनता हूँ। आत्मा क्षेत्र को जानता है, इसलिये वह क्षेत्रज्ञ कहलाता है। क्षेत्रज्ञ आदि, मध्य और अन्त से युक्त समस्त उत्पत्तिशील अचेतन गुणों के कार्य को और उनकी क्रिया को भी भली भाँति जानता है, किंतु बारंबार उत्पन्न होने वाले गुण आत्मा को नहीं जान पाते। जो गुणों और गुणों के कार्यों से अत्यन्त परे हैं, उस परम महान् सत्यस्व रूप क्षेत्रज्ञ को कोई नहीं जानता, परंतु वह सबको जानता है। अत: इस लोक में जिसके दोषों का क्षय हो गया है, वह गुणातीत धर्मज्ञ पुरुष सत्त्व (बुद्धि) और गुणों का परित्याग करके क्षैत्रज्ञ के शुद्ध स्वरूप परमात्मा में प्रवेश कर जाता है। क्षेत्रज्ञ सुख-दुखादि द्वन्द्वों से रहित, किसी को नमसकार नक करने वाला, स्वाहाकार रूप यज्ञादि कर्म न करने वाला, अचल और अनिकेत है। वही महान् विभु है।
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिक पर्व के अन्तर्गत अनुगीता पर्व में गुरु-शिष्य संवाद विषयक तैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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