महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 45 श्लोक 17-25
पंचचत्वारिंश (45) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)
गृहस्थ को उचित है कि वह देवता और अतिथितियों को भोजन कराने के बाद बचे हुए अन्न का स्वयं आहार करे। वेदोक्त कर्मों के अनुष्ठान में संलग्न रहे। अपनी शक्ति के अनुसार प्रसन्नतापूर्वक यज्ञ करे और दान दे।
मनन शील गृहस्थ को चाहिये कि हाथ, पैर, नेत्र,वाणी तथा शरीर के द्वारा होने वाली चपलता का परित्याग करे अर्थात् इनके द्वारा कोई अनुचित कार्य न होने दे। यही सत्पुरुषों का बर्ताव (शिष्टाचार) है।
सदा यज्ञापवीत धारण किये रहे, स्वच्छ वस्त्र पहने, उत्तम व्रत का पालन करे, शौच संतोष आदि नियमों और सत्य अहिंसा आदि यमों के पालन पूर्वक यथाशक्ति दान करता रहे तथा सदा शिष्ट पुरुषों के साथ निवास करे।
शिष्टाचार का पालन करते हुए जिह्वा और उपस्थ को काबू में रखे। सबके साथ मित्रता का बर्ताव करे। बाँस की छड़ी और जल से भरा हुआ कमण्डलु सदा साथ रखे।
वह आलस्य छोड़कर सदा तीन कमण्डलु धारण करे। एक आचमन के लिये, दूसरा पैर धोने के लिये और तीसरा शौच सम्पदन के लिये। इस प्रकार कमण्डलु धारण के ये तीन प्रयोजन हैं।
ब्राह्मण को अध्ययन-अध्यापन, यजन-याजन और दान तथा प्रतिग्रह- इन छ: वृत्तियों का आश्रय लेना चाहिये।
इन में से तीन कर्म- याजन (यज्ञ करना), अध्यापन (पढ़ाना) और श्रेष्ठ पुरुषों से दान लेना- ये ब्राह्मण की जीविका के साधन हैं।
शेष तीन कर्म- दान, अध्ययन तथा यज्ञानुष्ठान करना- ये धर्मोंपार्जन के लिये हैं।
धर्मज्ञ ब्राह्मण को इनके पालन में कभी प्रामद नहीं करना चाहिये। इन्द्रिय संयमी, मित्र भाव से युक्त, क्षमावान, सब प्राणियों के प्रति समान भाव रखने वाला, मननशील, उततम व्रत का पालन करने वाला और पवित्रता से रहने वाला गृहस्थ ब्राह्मण सदा सावधान रहकर अपनी शक्ति के अनुसार यदि उपर्युक्त नियमों का पालन करता है तो वह स्वर्ग लोक को जीत लेता है।
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिक पर्व में गुरु-शिष्य संवादविषयक पैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ है।
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