महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 53 श्लोक 19-26
त्रिपञ्चाशत्तम (53) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)
भगवान श्रीकृष्ण के इतना कहते ही उत्तंक मुनि अत्यन्त क्रोध से जल उठे और रोष से आँखें फाउ¸-फाड़करदेखने लगे। उन्होंने श्रीकृष्ण से इस प्रकार कहा- उत्तंक बोले- श्रीकृष्ण! कौरव तुम्हारे प्रिय संबंधी थे, तथापि शक्ति रखते हुए भी तुमने उनकी रक्षा न की। इसलिये मैं तुम्हें अवश्य शाप दूँगा। मधूसदून! तुम उन्हें जबर्दस्ती पकड़कर रोक सकते थे, पर ऐसा नहीं किया। इसलिये मैं क्रोध में भरकर तुम्हें शाप दूँगा। माधव! कितने खेद की बात है, तुमने समर्थ होते हुए भी मिथ्याचार का आश्रय लिया। युद्ध में सब ओर से आये हुए वे श्रेष्ठ कुरुवंशी नष्ट हो गये और तुमने उनकी उपेक्षा कर दी। श्रीकृष्ण ने कहा- भृगुनन्दन! मैं जो कुछ कहता हूँ, उसे विस्तारपूर्वक सुनिये। भार्गव! आप तपस्वी हैं, इसलिये मेरी अनुनय-विनय स्वीकार कीजिये। मैं आपको अध्यात्मतत्व सुना रहा हूँ। उसे सुनने के पश्चात् यदि आपकी इच्छा हो तो आप मुझे शाप दीजियेगा। तपस्वी पुरुषों में श्रेष्ठ महर्षे! आप यह याद रखिये कि कोई भी पुरुष थोड़ी सी तपस्या के बल पर मेरा तिरस्कार नहीं कर सकता। मैं नहीं चाहता कि आपकी तपस्या नष्ट हो जाय। आपका तप और तेज बहुत बढ़ा हुआ है। आपने गुरुजनों को भी सेवा से संतुष्ट किया है। द्विजश्रेष्ठ! आपने बाल्यावस्था से ही ब्रह्मचार्य का पालन किया है। सारी बातें मुझे अच्छी तरह ज्ञात हैं। इसलिये अत्यन्त कष्ट सहकर संचित किए हुए आपके तप का मैं नाश कराना नहीं चाहता हूँ।
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्व के अन्तर्गत अनुगीतापर्व में उत्तंक के उपाख्यान में श्रीकृष्ण और उत्तंक का समागमविषयक तिरपवनाँ अध्याय पूरा हुआ।
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