महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 58 श्लोक 15-34
अष्टपञ्चाशत्तम (58) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)
सौदास ने कहा- द्विजश्रेष्ठ! यदि यहाँ मुझे उचित बात कहनी है, तब तो मैं यही कहूँगा कि ब्राह्मणोत्तम! आपको मेरे पास किसी तरह नहीं आना चाहिये। भृगु कुल भूषण विप्र! ऐसा करने में ही मैं आपकी भलाई देखता हूँ। यदि आयेंगे तो आपकी मृत्यु हो जायेगी। इसमें संशय नहीं है।
वैशम्पायनजी ने कहा- जनमेजय! इस प्रकार बुद्धिमान राजा सौदास के मुख से उचित और हित की बात सुनकर उनकी आज्ञा ले उत्तंक मुनि अहल्या के पास चल दिये।
गुरुपत्नी का प्रिय करने वाले उत्तंक दोनों दिव्य कुण्डल लेकर बड़े वेग से गौत्तम के आश्रम की ओर बढ़े। रानी मदयन्ती ने उन कुण्डलों की रक्षा के लिये जैसी विधि बतायी थी, उसी प्रकार उन्हें काले मृगचर्म में बाँधकर वे ले जा रहे थे। शत्रुदमन! रास्ते में एक स्थान में उन्हें बड़े जोर की भूख लगी। वहाँ पास ही फलों के भार से झुका हुआ एक बेल का वृक्ष दिखायी दिया। ब्रह्मर्षि उत्तंक उस वृक्ष पर चढ़ गए और उस काले मृगचर्म को उन्होंने उसकी एक शाखा में बाँध दिया। फिर वे ब्राह्मणपंगुव उस समय वहाँ बेल तोड़-तोड़कर गिराने लगे। उस समय उनकी दृष्टि बेलों पर ही लगी हुई थी (वे कहाँ गिरते हैं, इसकी ओर उनका ध्यान नहीं था) प्रभो! उनके तोड़े हुए प्राय: सभी बेल उस मृगछाला पर ही, जिसमें उन विप्रवर ने वे दोनों कुण्डल बाँध रखे थे, गिरे। उन बेलों की चोट से बन्धन टूट गया और कुण्डल सहित वह मृगचर्म सहसा वृक्ष के नीचे जा गिरा। बन्धन टूट जाने पर उस काले मृगछाले के पृथ्वी पर गिरते ही किसी सर्प की दृष्टि उस पर पड़ी। वह ऐरावत के कुल में उत्पन्न हुआ तक्षक था। उसने मृगछाला के भीतर रखे हुए उस मणिमय कुण्डलों को देखा। फिर तो बड़ी शीघ्रता करके वह उन कुण्डलों को दाँतों में दबाकर एक बाँबी में घुस गया। सर्प के द्वारा कुण्डलों का अपहरण होता देख उत्तंक मुनि उद्विग्न हो उठे और अत्यंत क्रोध में भरकर वृक्ष से कूद पड़े। आकर एक काठ का डंडा हाथ में ले उसी से उस बाँबी को खोदने लगे। भरतनन्दन! ब्राह्मणशिरोमणि उत्तंक क्रोध और अमर्ष से संतप्त हो लगातार पैंतीस दिनों तक बिना किसी घबराहट के बिल खोदने के कार्य में जुटे रहे। उनके उस असह्न वेग को पृथ्वी भी नहीं सह सकी। वह डंडे की चोट से घायल एवं अत्यंत व्याकुल होकर डगमगाने लगी। उत्तंक नागलोक में जाने का मार्ग बनाने के लिय निश्चय करके धरती खोदते ही जा रहे थे कि महातेजस्वी वज्रधारी इन्द्र घोड़े जुते हुए रथ पर बैठकर उस स्थान पर आ पहुँचे और विप्रवर उत्तंक से मिले। वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन्! इन्द ्रउत्तंक के दु:ख से दुखी थे। अत: ब्राह्मण का वेष बनाकर उनसे बोले- ब्राह्मण! यह काम तुम्हारे वश का नही ंहै। नागलोक यहाँ से हजारों योजन दूर है। इस काठ के डंडे से वहाँ का रास्ता बने, यह कार्य सधने वाला नहीं जान पड़ता। उत्तंक ने कहा- ब्रह्मन्! द्विजश्रेष्ठ! यदि नागलोक मेें जाकर उन कुण्डलों को प्राप्त करना मेरे लिये असम्भवहै तो मैं आपके सामने ही प्राणों का परित्याग कर दूँगा।
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