महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 60 श्लोक 18-36
षष्टितम (60) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)
उन दोनों का वह परम दारुण युद्ध पाँच दिनों तक चलता रहा। अन्त में द्रोणाचार्य बहुत थक गये और धृष्टद्युम्न के वश में पड़कर मारे गये। तत्पश्चात् दुर्योधन की सेना में कर्ण को सेनापति बनाया गया, जो मरने से बची हुई पाँच अक्षौहिणी सेनाओं से घिरकर युद्ध के मैदान में खड़ा था। उस समय पाण्डवों के पास तीन अक्षौहिणी सेनाएँ शेष थीं जिनकी रक्षा अर्जुन कर रहे थे। उनमें बहुत से प्रमुख वीर मारे गये थे, फिर भी वे युद्ध के लिए डटी हुई थीं। कर्ण दो दिन तक युद्ध करता रहा। वह बड़े क्रूर स्वभाव का था। जैसे पतंग जलती आग मेें कूदकर जल मरता है, उसी प्रकार वह दूसरे दिन के युद्ध में अर्जुन से भिड़कर मारा गया। कर्ण के मारे जाने पर कौरव हतोत्साह होकर अपनी शक्तिा खो बैठे और मद्रराज शल्य को सेनापति बनाकर उन्हें तीन अक्षौहिणी सेनाओं से सुरक्षित रखकर उन्होंने युद्ध आरम्भ किया। पाण्डवों के भी बहुत से वाहन नष्ट हो गये थे। उनमें भी अब युद्धविषयक उत्साह नहीं रह गया था तो भी वे शेष बची हुई एक अक्षौहिणी सेना से घिरे हुए युधिष्ठर को आगे करके शल्य का सामना करने के लिए बढ़े। कुरुराज युधिष्ठर ने अत्यन्त दुष्कर पराक्रम करके दोपहर होत-होते मद्रराज शल्य को मार गिराया। शल्य के मारे जाने पर अमित पराक्रमी महामना सहदेव ने कलह की नींव डालने वाले शकुनि को मार दिया। शकुनि की मृत्यु हो जाने पर राजा दुर्योधन के मन में बड़ा दु:ख हुआ। उसके बहुत से सैनिक युद्ध में मार डाले गये थे। इसलिये वह अकेला ही हाथ में गदा लेकर रणभूमि से भाग निकला। इधर से अत्यन्त क्रोध में भरे हुए प्रतापी भीमसेन ने उसका पीछा किया और द्वैपायन नामक सरोवर में पानी के भीतर छिपे हुए दुर्योधन का पता लगा लिया। तदन्तर हर्ष में भरे हुए पाँचों पाण्डव मरने से बची हुई सेना के द्वारा उस पर चारों ओर से घेरा डालकर तालाब में बैठे हुए दुर्योधन के पास जा पहँुचे। उस समय भीमसेन के वाग्बाणों से अत्यन्त घायल होकर दुर्योधन तुरंत पानी से बाहर निकला और हाथ में गदा ले युद्ध के लिए उद्यत हो पाण्डवों के पास आ गया। तत्पश्चात् उस महासमर में सब राजाओं के देखते-देखते भीमसेन ने पराक्रम करके धृतराष्टपुत्र राजा दुर्योधन को मार डाला। इसके बाद रात के समय जब पाण्डवों की सेना अपनी छावनी में निश्चिन्त होकर सो रही थी, उसी समय द्रोणपुत्र अश्वत्थामा ने अपने पिता के वध को न सह सकने के कारण आक्रमण कर किया और सबको मार गिराया। उस समय पाण्डवों के पुत्र, मित्र और सैनिक सब मारे गये। केवल मेरे और सात्यकि के साथ पाँचों पाण्डव शेष रहे। कौरवों के पक्ष में कृपाचार्य और कृतवर्मा के साथ द्रोणपुत्र अश्वत्थामा युद्ध से जीवित बचा है। कुरुवंशी युयुत्सु भी पाण्डवों का आश्रय लेने के कारण बच गये हैं। बन्धु-बान्धवों सहित कौरवराज दुर्योधन के मारे जाने पर विदुर और संजय धर्मराज युधिष्ठर के आश्रम में आ गये हैं। प्रभो! इस प्रकार अठारह दिनों तक वह युद्ध हुआ है। उसमें जो राजा मारे गये हैं, वे स्वर्गलोक में जा बसे हैं। वैशम्पायनजी कहते हैं- महाराज! रोंगटे खड़े कर देने वाली उस युद्ध-वार्ता को सुनकर वृष्णिवंशी लो दु:ख-शोक से व्याकुल हो गये।
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्व के अन्तर्गत अनुगीतापर्व में श्रीकृष्ण द्वारा युद्धवृत्तान्त का कथनविषयक साठवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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