महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 64 श्लोक 1-16
चतु:षष्टितम (64) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)
पाण्डवों का हिमालय पहुँचकर वहाँ पड़ाव डालना और रात में उपवासपूर्वक निवास करना
वैशम्पायनी जी कहते हैं- जनमेजय! पाण्डवों के साथ जो मनुष्य और वाहन थे, वे सब के सब बड़े हर्ष में भरे हुए थे। वे स्वयं भी अपने रथ के महान् घोष से इस पृथ्वी को गुँजाते हुए प्रसन्नतापूर्वक यात्रा कर रहे थे। सूत, मागध और वन्दीजन अनेक प्रकार के प्रशंसासूचक वचनों द्वारा उनके गुण गाते चलतेे थे। अपनी सेना से घिरे हुए पाण्डव ऐसे जान पड़ते थे, मानो अपनी किरणमालाओं से मण्डित सूर्य प्रकाशित हो रहे हों। राजा युधिष्ठर के मस्तक पर श्वेत छत्र बना हुआ था, जिससे वे वहाँ पूर्णमासी के चन्द्रमा के समान शोभा पा रहे थे। मार्ग में बहुत से मनुष्य प्रसन्न होकर राजा युधिष्ठर को विजयसूचक आशीर्वाद देते थे और वे पुरुषशिरोमणि नरेश यथोचित रुप से सिर झुकाकर उन यर्थाथ वचनों को ग्रहण करते थे। राजन्! राजा युधिष्ठर के पीछे-पीछे जो बहुत से सैनिक चल रहे थे, उनका महान् कोलाहल आकाश को स्तब्ध करके गूँज उठता था। राजन्! अनेकानेक सरोवरों, सरिताओं, वनों, उपवनों तथा पर्वत को लाँघकर महाराज युधिष्ठर उस स्थान में जा पहुँचे, जहाँ वह (राजा मरुत्त का रखा हुआ) उत्तम द्रव्य संचित था। कुरुवंशी भरतश्रेष्ठ! वहाँ एक समतल एवं सुखद स्थान में पाण्डुपुत्र राजा युधिष्ठर ने तप, विद्या और इन्द्रिय-संयम से युक्त ब्राह्मणों एवं वेद-वेदांग के पारगामी विद्वान राजपुरोहित धौम्य मुनि को आगे रखकर सैनिकों के साथ पड़ावा डाला। बहुत से राजा, ब्राह्मण और पुरोहित ने यथोचित रीति से शान्तिकर्म करके युधिष्ठर और उनके मन्त्रियों को विधिपूर्वक बीच में रखकर उन्हें सब ओर से घेर रखा था। ब्राह्मणों ने जो छावनी वहाँ बनायी थी, उसमें पूर्व से पश्चिम को और उत्तर से दक्षिण को जाने वाली तीन-तीन के क्रम से कुल छह सड़कें थीं तथा उस छावनी के नौ खण्ड थे। महाराज युधिष्ठर ने मतवाले गजराजों के रहने के स्थान का विधिवत निर्माण कराकर ब्राह्मणों से इस प्रकार कहा- ‘विप्रवरो! किसी शुभ नक्षत्र और शुभ दिन को इस कार्य की सिद्धि के लिये आप लोग जो भी ठीक समझें, वह उपाय करें। ऐसा न हो कि यहीं लटके रहकर हमारा बहुत अधिक समय व्यतीत हो जाय। द्विजेन्द्रगण! इस विषय में कुछ निश्चय करके इस समय जो करना उचित हो, उसे आप लोग अविलम्ब करें। धर्मराज युधिष्ठर की यह बात सुनकर उनका प्रिय करने की इच्छा वाले ब्राह्मण और पुरोहित प्रसन्नतापूर्वक इस प्रकार बोले- ‘राजन्! आज ही परम पवित्र नक्षत्र और शुभ दिन है; अत: आज ही हम श्रेष्ठतम कर्म करने का प्रयत्न आरंभ करते हैं। हम लोग तो आज केवल जल पीकर रहेंगे और आप लोगों को भी आज उपवास करना चाहिए। उन श्रेष्ठ ब्राह्मणों का यह वचन सुनकर समस्त पाण्डव रात में उपवास करके कुश की चटाइयों पर निर्भय होकर सोये। वे ऐसे जान पड़ते थे, मानो यज्ञमण्डप में पाँच वेदियों पर स्थापित पाँच अग्नि प्रज्वलित हो रहे हों। तदनंतर ब्राह्मणों की कही हुई बातें सुनते हुए महात्मा पाण्डवों की वह रात सकुशल व्यतीत हुई। फिर निर्मल प्रभात का उदय होने पर उन श्रेष्ठ ब्राह्मणों ने धर्मनन्दन राजा युधिष्ठिर से इस प्रकार कहा।
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्व के अन्तर्गत अनुगीतापर्व में द्रव्य लाने का उपक्रम विषयक चौसठ्वाँ अध्याय पूरा हुआ।
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