महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 68 श्लोक 17-24
अष्टषष्टितम (68) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)
‘गोविन्द! आप शत्रुओं का संहार करने वाले हैं। मैं आपके चरणों में मस्तक रखकर आपको प्रसन्न करके आपसे इस बालक के प्राणों की भीख माँगती हूँ। यदि यह जीवित नहीं हुआ तो मैं भी अपने प्राण त्याग दूँगी। ‘साधुपुरुष केशव! इस बालक पर मैंने जो बड़ी-बड़ी आशाएँ बाँध रखी थी, द्रोणपुत्र अश्वत्थामा ने उन सबको नष्ट कर दिया। अब मैं किस लिये जीवित रहूँ?। ‘श्रीकृष्ण! जनार्दन! मेरी बड़ी आशा थी कि अपने इस बच्चे को गोद में लेकर मैं प्रसन्नतापूर्वक आपके चरणों में अभिवादन करूँगी; किन्तु अब वह व्यर्थ हो गयी। ‘पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण! चंचल नेत्रोंवाले पतिदेव के इस पुत्र की मृत्यु हो जाने से मेरे हृदय के सारे मनोरथ निष्फल हो गये। ‘मधुसूदन! सुनती हूँ कि चंचल नेत्रोंवाले अभिमन्यु आपको बहुत ही प्रिय थे। उन्हीं का बेटा आज ब्रह्मास्त्र की मार से मरा पड़ा है। आप इसे आँख भरकर देख लीजिये। ‘यह बालक भी अपने पिता के ही समान कृतघ्न और नृशंस है, जो पाण्डवों की राजलक्ष्मी को छोड़कर अकेला ही यमलोक चला गया। ‘केशव! मैंने युद्ध के मुहाने पर यह प्रतिज्ञा की थी कि ‘मेरे वीर पतिदेव! यदि आप मारे गये तो मैं शीघ्र ही परलोक में आपसे आ मिलूँगी। ‘परंतु श्रीकृष्ण! मैंने उस प्रतिज्ञा का पालन नहीं किया। मैं बड़ी कठोरहृदया हूँ। मुझे पतिदेव नहीं, ये प्राण ही प्यारे हैं। यदि इस समय मैं परलोक में जाऊँ तो वहाँ अर्जुनकुमार मुझसे क्या कहेंगे?’।
इस प्रकार श्रीमहाभारतपर्व आश्वमेधिकपर्व के अन्तर्गत अनुगीतापर्व में वाक्यविषयक अड़सठवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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