महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 70 श्लोक 1-21
सप्ततितम (70) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)
श्रीकृष्ण द्वारा राजा परीक्षित का नामकरण तथा पाण्डवों का हस्तिनापुर के समीप आगमन
वैशम्पायनजी कहते है- राजन ! भगवान श्रीकृष्ण ने जब ब्रह्मास्त्र को शान्त कर दिया, उस समय वह सूतिकागृह तुम्हारे पिता के तेज से देदीप्यमान होने लगा। फिर तो बालकों का विनाश करने वाले समस्त राक्षस उस घर को छोड़कर भाग गये। इसी समय आकाशवाणी हुई- ‘केशव ! तुम्हें साधुवाद ! तुमने बहुत अच्छा कार्य किया’। साथ ही वह प्रज्वलित ब्रह्मास्त्र ब्रह्मलोक को चला गया । नरेश्वर ! इस तरह तुम्हारे पिता को पुनर्जीवन प्राप्त हुआ। राजन् ! उत्तरा का वह बालक अपने उत्साह और बल के अनुसार हाथ-पैर हिलाने लगा, यह देख भरतवंश की उन सभी स्त्रियों को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा से ब्राह्मणों द्वारा स्वस्तिवाचन कराया । फिर वे सब आनन्दमग्न होकर श्रीकृष्ण के गुण गाने लगीं । जैसे नदी के पार जाने वाले मनुष्यों को नाव पाकर बड़ी खुशी होती है, उसी प्रकार भरतवंशी वीरों की वे स्त्रियां-कुन्ती, द्रौपदी, सुभद्रा, उत्तरा एवं नर वीरों की स्त्रियां उस बालक के जीवित होने से मन–ही–मन बहुत प्रसन्न हुईं । भरतश्रेष्ठ ! तदनन्तर मल्ल, नट,ज्योतिषी, सुख का समाचार पूछने वाले सेवक तथा सूतों और मागधों के समुदाय कुरुवंश की स्तुति और आशीर्वाद के साथ भगवान श्रीकृष्ण का गुणगान करने लगे । भरतनन्दन ! फिर प्रसन्न हुई उत्तरा यथासमय उठकर पुत्र को गोद में लिये हुए यदुनन्दन श्रीकृष्ण के समीप आयी और उन्हें प्रणाम किया। भगवान श्रीकृष्ण ने प्रसन्न होकर उस बालक को बहुत से रत्न उपहार में दिये । फिर अन्य यदुवंशियों ने भी नाना प्रकार की वस्तुएं भेंट की । महाराज ! इसके बाद सत्यप्रतिज्ञ भगवान श्रीकृष्ण ने तुम्हारे पिता का इस प्रकार नामकरण किया। ‘कुरुकुल के परिक्षीण हो जाने पर यह अभिमन्यु का बालक उत्पन्न हुआ है । इसलिये इसका नाम परीक्षित होना चाहिये।‘ऐसा भगवान ने कहा । नरेश्वर ! इस प्रकार नामकरण हो जाने के बाद तुम्हारे पिता परीक्षित कालक्रम से बड़े होने लगे । भारत ! वे सब लोगों के मन को आनन्दमग्न किये रहते थे । वीर भरतनन्दन ! जब तुम्हारे पिता की अवस्था एक महीने की हो गयी, उस समय पाण्डव लोग बहुत सी रत्नराशि लेकर हस्तिनापुर को लौटे । वृष्णिवंश के प्रमुख वीरों ने जब सुना कि पाण्डव लोग नगर के समीप आ गये हैं, तब वे उनकी अगवानी के लिये बाहर निकले । पुरवासी मनुष्यों ने फूलों की मालाओं, वन्दनवारों, भांति–भांति की ध्वजाओं तथा विचित्र–विचित्र पताकाओं से हस्तिनापुर को सजाया था । नरेश्वर ! नागरिकों ने अपने–अपने घरों की सजावट की थी । विदुरजी ने पाण्डवों का प्रिय करने की इच्छा से देवमन्दिरों में विविध प्रकार से पूजा करने की आज्ञा दी । हस्तिनापुर के सभी राजमार्ग फूलों से अलंकृत किये गये थे । नाचते हुए नर्तकों और गाने गायकों के शब्दों से उस नगर की बड़ी शोभा हो रही थी । वहांसमुद्र की जलराशि की गर्जना के समान कोलाहल हो रहा था । राजन उस समय वह नगर कुबेर की अलकापुरी के समान प्रतीत होता था । वहां सब ओर एकान्त स्थानों में स्त्रियों सहित बंदीजन खड़े थे, जिनसे उस पुरी की शोभा बढ़ गयी थी । उस समय हवा के झोकें से नगर में सब ओर पताकाएँ फहरा रही थीं, जो दक्षिण और उत्तर कुरु नामक देशों की शोभा दिखाती थीं। राज–काज संभालने वाले पुरुषों ने सब ओर यह घोषणा कर दी कि आज समूचे राष्ट्र में उत्सव मनाया जाय और सब लोग रत्नों के आभूषण या उत्तमोत्तम गहने–कपड़े पहनकर इस उत्सव में सम्मिलित हों ।
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