महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 78 श्लोक 18-35
अष्टसप्ततितम (78) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)
साथ ही विजय की अभिलाषा लेकर आक्रमण करने वाले उन सैन्धव योद्धाओं के मस्तकों को वे झुकी हुई गांठ वाले भल्लों द्वारा काट–काट कर गिराने लगे। उनमें से कुछ लोग भागने लगे, कुछ लोग फिर से धावा करने लगे और कुछ लोग युद्ध से निवृत्त होने लगे । उन सबका कोलाहल जल से भरे हुए महासागर की गम्भीर गर्जना के समान हो रहा था। अमित तेजस्वी अर्जुन के द्वारा मारे जाने पर भी सैन्धव योद्धा बल और उत्साहपूर्वक उनके साथ जूझते ही रहे। थोड़ी ही देर में अर्जुन ने युद्ध स्थल में झुकी हुई गांठ वाले बाणों द्वारा अधिकांश सैन्धव वीरों को संज्ञा शून्य कर दिया । उनके वाहन और सैनिक भी थकावट से खिन्नहो रहे थे। समस्त सैन्धव वीरों को कष्ट पाते जान धृतराष्ट्र की पुत्री दु:शला अपने बेटे सुरथ के वीर बालक को जो उसका पौत्र था, साथ ले रथ पर सवार हो रणभूमि में पाण्डुकुमार अर्जुन के पास आयी । उसके आने का उद्देश्य यह था कि सब योद्धा युद्ध छोड़कर शान्त हो जाय। वह अर्जुन के पास आकर आर्त स्वर से फूट–फूटकर रोने लगी । शक्तिशाली अर्जुन ने भी उसे सामने देख अपना धनुष नीचे डाल दिया। धनुष त्यागकर कुन्तीकुमार ने विधिपूर्वक बहिन का सत्कार किया और पूछा– बहिन ! बताओ, मैं तुम्हारा कौनसा कार्य करूं ? तब दु:शला ने उत्तर दिया- ‘भैया ! भरतश्रेष्ठ ! यह तुम्हारे भानजे सुरथ का औरस पुत्र है । पुरुष प्रवर पार्थ ! इसकी ओर देखो, यह तुम्हें प्रणाम करता है। राजन ! दु:शला के ऐसा कहने पर अर्जुन ने उस बालक के पिता के विषय में जिज्ञासा प्रकट करते हुए पूछा –‘बहिन ! सुरथ कहां है ?’ तब दु:शला बोली- ‘भैया ! इस बालक का पिता वीर सुरथ पितृशोक से संतप्त और विषा से पीड़ित हो जिस प्रकार मृत्यु को प्राप्त हुआ है, वह मुझसे सुनो ।‘निष्पाप अर्जुन ! मेरे पुत्र सुरथ ने पहले से सुन रखा था कि अर्जुन के हाथ से ही मेरे पिता की मृत्यु हुई है । इसके बाद जब उसके कानों में यह समाचार पड़ा कि तुम घोड़े के पीछे–पीछे युद्ध के लिये यहां तक आ पहुंचे हो तो वह पिता की मृत्यु के दु:ख से आतुर हो अपने प्राणोंका परित्याग कर बैठा है।‘अनघ ! अर्जुन आये’ इन शब्दों के साथ तुम्हारा नाममात्र सुनकर ही मेरा बेटा विषाद से पीड़ित हो पृथ्वी पर गिरा और मर गया। प्रभो ! उसको ऐसी अवस्था में पड़ा हुआ देख उसके पुत्र को साथ ले मैं शरण खोजती हुई आज तुम्हारे पास आयी हूं । ऐसा कहकर धृतराष्ट्र– पुत्री दु:शला दीन होकर आर्त स्वर से विलाप करने लगी । उसकी दीन दशा देखकर अर्जुन भी दीन भाव से अपना मुंह नीचे किये खड़े रहे । उस समय दु:शला उनसे फिर बोली-‘भैया ! तुम कुरुकुल में श्रेष्ठ और धर्म को जानने वाले हो, अत: दया करो । अपनी इस दुखिया बहिन की ओर देखो और भानजे के बेटे पर भी कृपादृष्टि करो। मन्दबुद्धि दुर्योधन और जयद्रथ को भूलकर हमें अपनाओं । जैसे अभिमन्यु से शत्रुवीरों का संहार करने वाले परीक्षित का जन्म हुआ है, उसी प्रकार सुरथ से यह मेरा महाबाहु पौत्र उत्पन्न हुआ है।
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