महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 90 श्लोक 50-65
नवतितम (90) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)
‘द्विजश्रेष्ठ ! स्त्रियों का सत्य, धर्म, रति, अपने गुणों से मिला हुआ स्वर्ग तथा सारी अभिलाषा पति के ही अधीन है।‘माता का रज और पिता का वीर्य – इन दोनों के मिलने से ही वंश परम्परा चलती है । स्त्री के लिये पति ही सबसे बड़ा देवता है । नारियों को जो रति और पुत्र रूप फल की प्राप्ति होती है, वह पति का ही प्रसाद है। आप पालन करने के कारण मेरे पति, भरण – पोषण करने से भर्ता और पुत्र प्रदान करने के कारण वरदाता हैं, इसलिये मेरे हिस्से का सत्तू अतिथि देवता को अर्पण कीजिये। ‘आप भी तो जराजीर्ण, वृद्ध, क्षुधातुर, अत्यन्त दुर्बल, उपवास से थके हुए और क्षीणकाय हो रहे हैं। ( फिर आप जिस तरह भूख का कष्ट सहन करते हैं, उसी प्रकार मैं भी सह लूंगी )’।पत्नी के ऐसा कहने पर ब्राह्मण ने सत्तू लेकर अतिथि सं कहा – ‘साधु पुरुषों में श्रेष्ठ ब्राह्मण ! आप यह सत्तू भी पुन: ग्रहण कीजिये’।अतिथि ब्राह्मण उस सततू को भी लेकर खा गया ; किंतु संतुष्ट नहीं हुआ । यह देखकर उंछवृत्ति वाले ब्राह्मण को बड़ी चिन्ता हुई।तब उनके पुत्र ने कहा – सत्पुरुषों में श्रेष्ठ पिताजी ! आप मेरे हिस्से का यह सत्तू लेकर ब्राह्मण को दे दीजिये । मैं इसी में पुण्य मानता हूं, इसलिये ऐसा कर रहा हूं ।मुझे सदा यत्न पूर्वक आपका पालन करना चाहिये ; क्योंकि साधु पुरुष सदा इस बात की अभिलाषा रखते हैं कि मैं अपने बूढ़े पिता का पालन – पोषण करूं ।पुत्र होने का यही फल है कि वह वृद्धावस्था में पिता की रक्षा करे । ब्रह्मर्षे ! तीनों लोकों में यह सनातन श्रुति प्रसिद्ध है। प्राण धारण मात्र से आप तप कर सकते हैं । देहधारियों के शरीरों में स्थित हुआ प्राण ही परम धर्म है। पिता ने कहा – बेटा ! तुम हजार वर्ष के हो जाओ तो भी हमारे लिये बालक ही हो । पिता पुत्र को जन्म देकर ही उससे अपने को कृतकृत्य मानता है।सामर्थ्यशाली पुत्र ! मैं इस बात को अच्छी तरह जानता हूं कि बच्चों की भूख बड़ी प्रबल होती है । मैं तो बूढ़ा हूं । भूखे रहकर भी प्राण धारण कर सकता हूं । तुम यह सत्तू खाकर बलवान् होओ – अपने प्राणों की रक्षा करो।बेटा ! जीर्ण अवस्था हो जाने के कारण मुझे भूख अधिक कष्ट नहीं देती है । इसके सिवा मैं दीर्घ काल तक तपस्या कर चुका हूं ; इसलिये अब मुझे मरने का भय नहीं है।पुत्र बोला – तात ! मैं आपका पुत्र हूं, पुरुष का त्राण करने के कारण ही संतान को पुत्र कहा गया है । इसके सिवा पुत्र पिता का अपना ही आत्मा माना गया है ; अत: आप अपने आत्मभूत पुत्र के द्वारा अपनी रक्षा कीजिये।पिता ने कहा – बेटा ! तुम रूप, शील ( सदाचार और सद्भाव ) तथा इन्द्रिय संयम के द्वारा मेरे ही समान हो । तुम्हारे इन गुणों की मैंने अनेक बार परीक्षा कर ली है, अत: मैं तुम्हारा सत्तू लेता हूं।यों कहकर श्रेष्ठ ब्राह्मण ने प्रसन्नतापूर्वक वह सत्तू ले लिया और हंसते हुए – से उस ब्राह्मण अतिथि को परोस दिया।
« पीछे | आगे » |