महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णवधर्म पर्व भाग-11
द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (वैष्णवधर्म पर्व)
सुपात्र ब्राह्मणों में भी जो बाल्यकाल से ही अग्निहोत्र करने वाले, शुद्र का अन्न त्याग देने वाले तथा शान्त और मेरे भक्त हैं एवं सदा मेरी पूजा किया करते हैं, उनको दिया हुआ अक्षय होता है। मेरे भक्त ब्राह्मण को दान देकर उसकी पूजा करने, सिर झुकने, सत्कार करने, बातचीत करने अथवा दर्शन करने से वह मनुष्य को दिव्य लोक में पहुंचा देता है। जो लोग मेरे गुण और लीलाओं का पाठ करते हैं तथा मुझे नमस्कार करते और मेरा ध्यान करते हैं, उनका दर्शन और स्पर्श करने वाला मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है। जो मेरे भक्त हैं, जिनके प्राण मुझमें ही लगे हुए हैं, जो मेरी महिमा का गान करते हैं और मेरी शरण में पड़े रहते हैं, जिनकी उत्पत्ति शुद्ध रज और वीर्य से हुई है, जो वेद के विद्वान, जितेन्द्रिय तथा सदा शूद्रान्न से बचे रहने वाले हैं, वे दर्शन मात्र से पवित्र कर देते हैं। ऐसे लोगों के घर पर उपस्थित होकर भक्ति पूर्वक विशेष रूप से दान देना चाहिये । वह दान साधारण की अपेक्षा करोड़ गुना फल देने वाला माना गया है। राजेन्द्र ! जागते अथवा सोते समय, परदेश में अथवा घर रहते समय जिस ब्राह्मण के हृदय से उसकी भक्ति – भावना के कारण मैं कभी दूर नहीं होता, ऐसा वह श्रेष्ठ ब्राह्मण पूजन, दर्शन, स्पर्श अथवा सम्भाषण करने मात्र से मनुष्य को सदा पवित्र कर देता है। पाण्डव ! इस प्रकार सब अवस्थाओं में मरे भक्तों को दिये हुए सब प्रकार के दान स्वर्ग मार्ग प्रदान करने वाले होते हैं। ( दाक्षिणात्य प्रति में अध्याय समाप्त ) बीज और योनि की शुद्धि तथा गायत्री – जप की और ब्राह्मणों की महिमा का और उनके तिरस्कार के भयानक फल का वर्णन वैश्म्पायनजी कहते हैं – राजन ! इस प्रकार सात्विक, राजस और तामस दान, उनकी भिन्न - भिन्न गति और पृथक् – पृथक् फल का वर्णन सुनकर धर्मपरायण युधिष्ठिर का चित्त बहुत प्रसन्न हुआ। इस परम पवित्र धर्मरूपी अमृत का पान करने से उन्हें तृप्ति नहीं हुई, अत: वे पुन: भगवान् श्रीकृष्ण से बोले- ‘जगदीश्वर ! मुझे यह बतलाइये कि बीज और योनि ( वीर्य और रज )– से शुद्ध पुरूषों के लक्षण कैसे होते हैं ? बीज – दोष से कैसे मनुष्य उत्पन्न होते हैं ? ‘देवेश्वर श्रीकृष्ण ! ब्राह्मणों के उत्तम, मध्यम आदि विशेष भेदों का, उनके आचार के दोषों तथा उनके गुण – दोषों का भी सम्पूर्ण तया वर्ण कीजिये। श्री भगवान ने कहा – राजन! बीज और योनि की शुद्धि – अशुद्धि का यथावत वर्णन सुनो । पाण्डुनन्दन ! उनकी शुद्धि से ही यह संसार टिकता है और अशुद्धि से उनका नाश हो जाता है। जो ब्राह्मण ब्रह्मचर्य का विधिवत पालन करता है, जिसका ब्रह्मचर्य व्रत कभी खण्डित नहीं होता, उसको बीज समझना चाहिये, उसी का बीज शुभ होता है। इसी प्रकार जो कन्या पिता और माता की दृष्टि से उत्तम कुल में उत्पन्न हो, जिसकी योनि दूषित न हुई हो तथा ब्रह्म आदि उत्तम विवाहों की विधि से ब्याही गयी हो, वह उत्तम स्त्री मानी गयी है । उसी की योनि श्रेष्ठ है।
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