महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णवधर्म पर्व भाग-33

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द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्‍वमेधिक पर्व (वैष्णवधर्म पर्व)

महाभारत: आश्‍वमेधिक पर्व: द्विनवतितम अध्याय: भाग-33 का हिन्दी अनुवाद

वैशम्‍पायनजी कहते हैं – राजन् ! दान और तपस्‍या के पुण्‍य - फल को सुनकर धर्मपुत्र युधिष्‍ठिर बहुत प्रसन्‍न हुए और उन्‍होंने भगवान श्रीकृष्‍ण से पूछा - ‘भगवन ! विभो ! जिसे ब्रह्माजी ने अग्‍निहोत्र की सिद्धि के लिये पूर्वकाल में उत्‍पन्‍न किया था तथा जो सदा ही पवित्र मानी गयी है, उस कपिला गौ का ब्राह्मणों को किस प्रकार दान करना चाहिये ? माधव ! वह पवित्र लक्षणों वाली गौ किस दिन और कैसे ब्राह्मण को देनी चाहिये ? ‘ब्रह्माजी ने कपिला गौ के कितने भेद बतलाये हैं तथा कपिला गौ का दान करने वाला मनुष्‍य कैसा होना चाहिये ? इन सब बातों को मैं यथार्थ रूप से सुनना चाहता हूं’। धर्मपुत्र राजा युधिष्‍ठिर के द्वारा सभा में इस प्रकार कहे जाने पर श्रीकृष्‍ण कपिला गौ की संख्‍या और उनकी महमा का वर्णन करने लगे - ‘पाण्‍डुनन्‍दन ! यह विषय बड़ा ही पवित्र और पावन है । इसका श्रवण करने से पापी पुरुष भी पाप से मुक्‍त हो जाता है, अत: ध्‍यान देकर सुनो ‘पूर्व काल में स्‍वयम्‍भू ब्रह्माजी ने अग्‍निहोत्र तथा ब्राह्मणों लिये सम्‍पूर्ण तेजों का संग्रह करके कपिला गौ को उत्‍पन्‍न किया था। ‘पाण्‍डुनन्‍दन ! कपिला गौ पवित्र वस्‍तुओं में सबसे बढ़कर पवित्र, मंगलजनक पदार्थों में सबसे अधिक मंगलास्‍वरूपा तथा पुण्‍यों में परमपुण्‍य स्‍वरूपा है। वह तपस्‍याओं में श्रेष्‍ठ तपस्‍या, व्रतों में उत्‍तम व्रत, दानों में श्रेष्‍ठ दान, और सबका अक्षय कारण है। ‘द्विजातियों को चाहिये कि वे सांयकाल और प्रात: काल में कपिला गौ के दूध, दही अथवा घी से अग्‍निहोत्र करें। ‘प्रभो ! जो ब्राह्मण कपिला गौ के घी, दही अथवा दूध से विधिवत् अग्‍निहोत्र करते हैं, भक्‍तिपूर्वक अतिथियों की पूजा करते हैं, शूद्र के अन्‍न से दूर रहते हैं तथा दम्‍भ और असत्‍य का सदा त्‍याग करते हैं, वे सूर्य के समान तेजस्‍वी विमानों द्वारा सूर्य मण्‍डल के बीच से होकर परम उत्‍तम ब्रह्मलोक में जाते हैं। ‘युधिष्‍ठिर ! ब्रह्माजी की आज्ञा से कपिला के सींग के अग्रभाग में सदा सम्‍पूर्ण तीर्थ निवास करते हैं । जो मनुष्‍य शुद्ध भाव से नियमपूर्वक प्रतिदिन सबेरे उठकर कपिला गौ के सींग और मस्‍तक से गिरती हुई जलधारा को अपने सिर पर धारण करता है, वह उस पुण्‍य के प्रभाव से सहसा पाप रहित हो जाता है । जैसे आग तिनके को जला डालती है, उसी प्रकार वह जल मनुष्‍य के तीन जन्‍मों के पापों को भस्‍म कर डालता है। ‘जो मनुष्‍य कपिला का मूत्र लेकर अपनी नेत्र आदि इन्‍द्रियों में लगाता तथा उससे स्‍नान करता है, वह उस स्‍नान के पुण्‍य से निष्‍पाप हो जाता है । उसके तीस जन्‍मों के पाप नष्‍ट हो जाते हैं, इसमें संशय नहीं है। ‘नरपते ! जो प्रात:काल उठकर भक्‍ति के साथ कपिला गौ को घास की मुट्ठी अर्पण करता है, उसके एक महीने के पापों का नाश हो जाता है। ‘जो सबेरे शयन से उठकर भक्‍ति पूर्वक कपिला गौ की परिक्रमा करता है, उसके द्वारा समूची पृथ्‍वी की परिक्रमा हो जाती है, इसमें संशय नहीं है’।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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