महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णवधर्म पर्व भाग-36

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द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्‍वमेधिक पर्व (वैष्णवधर्म पर्व)

महाभारत: आश्‍वमेधिक पर्व: द्विनवतितम अध्याय: भाग-36 का हिन्दी अनुवाद

‘जो मुझमें चित्‍त लगाकर इस प्रसंग को भक्‍तिपूर्वक सुनता है, उसके एक रात के सारे पाप तत्‍काल नष्‍ट हो जाते हैं। ‘अब मैं कपिला गौ के सम्‍बन्‍ध में विशेष बातें बतला रहा हूं । राजन् ! पहले जो मैंने तुम्‍हें दस प्रकार की कपिला गौएं बतलायी हैं, उनमें चार कपिलाएं अत्‍यन्‍त श्रेष्‍ठ, पुण्‍य प्रदान करने वाली तथा पाप नष्‍ट करने वाली हैं। ‘सुवर्ण कपिला, रक्‍ताक्षपिंगला, पिंगलाक्षी और पिंगलपिंगला – ये चार प्रकार की कपिलाएं श्रेष्‍ठ, पवित्र और पाप दूर करने वाली हैं । इनके दर्शन और नमस्‍कार से भी मनुष्‍य के पाप नष्‍ट हो जाते हैं। ‘युधिष्‍ठिर ! ये पापनाशिनी कपिला गौएं जिसके घर में मौजूद रहती हैं वहा श्री, विजय और विशाल कीर्ति का नित्‍य निवास होता है। ‘इनके दूध से भगवान् शंकर, दही से सम्‍पूर्ण देवता और घी से अग्‍निदेव तृप्‍त होते है। ‘कपिला गौ के घी, दूध, दही अथवा खीर का एक बार भी श्रेत्रिय ब्राह्मणों को दान करके मनुष्‍य सब पापों से छुटकारा पा जाता है। ‘जो जितेन्‍द्रिय रहकर एक दिन – रात उपवास करके कपिला गौ का पंचगव्‍य पान करता है, उसे चान्‍द्रायण से बढ़कर उत्‍तम फल की प्राप्‍ति होती है। ‘जो क्रोध और असत्‍य का त्‍याग करके मुझमें चित्‍त लगाकर शुभ मुहूर्त में कपिला गौ के पंचगव्‍य का आचमन करता है, उसका अन्‍त:करण शुद्ध हो जाता है। ‘जो विषुवयोग में पृथक – पृथक मन्‍त्र पढ़कर कपिला के पंचगव्‍य से मेरी या शंकर की प्रतिमा को स्‍नान कराता है, ‘उसे अश्‍वमेध – यज्ञ का फल मिलता है। ‘वह मुक्‍त, निष्‍पाप एवं शुद्धचित्‍त होकर आकाश की शोभा बढ़ाने वाले विमान के द्वारा मेरे अथवा रुद्र के लोक में गमन करता है। ‘राजन ! इसलिये परलोक में हित चाहने वाले पुरुष को कपिला गौ का दान अवश्‍य करना चाहिये । जिस समय अग्‍निहोत्री ब्राह्मण को कपिला गौ दान में दी जाती है, उस समय उसके सींगों के ऊपरी भाग में विष्‍णु और इन्‍द्र निवास करते हैं। ‘सींगों की जड़ में चन्‍द्रमा और वज्रधारी इन्‍द्र रहते हैं । सींगों के बीच में ब्रह्मा तथा ललाट में भगवान् शंकर का निवास होता है।‘ ‘दोनों कानों में अश्‍विनीकुमार, नेत्रों में चन्‍द्रमा और सूर्य, दांतों में मरुद्गण, जिव्‍हा में सरस्‍वती, रोम कूपों में मुनि, चमड़े में प्रजापति एवं श्‍वासों में षडंग, पद और क्रमसहित चारों वेदों का निवास है। ‘नासिका – छिद्रों में गन्‍ध और सुगन्‍धित पुष्‍प, नीचे के ओठ में सब वसुगुण तथा मुख में अग्‍नि निवास करते हैं। ‘कक्षा मे साध्‍य – देवता, गरदन में पार्वती, पीठ पर नक्षत्रगण, ककुद् के स्‍थान में आकाश, अपान में सारे तीर्थ, मूत्र में साक्षात् गंगाजी तथा गोबर में आठ ऐश्‍वर्यों से सम्‍पन्‍न लक्ष्‍मीजी रहती हैं। ‘नासिका में परम सुन्‍दरी ज्‍येष्‍ठा देवी, नितम्‍बों में पितर एवं पूंछ में भगवती रमा रहती हैं। ‘दोनों पसलियों में सब विश्‍वदेव स्‍थित हैं और छाती में प्रसन्‍नचित्‍त शक्‍तिधारी कार्तिकेय रहते हैं। ‘घुटनों और ऊरुओं में पांच वायु रहते हैं, खुरों के मध्‍य में गन्‍धर्व और खुरों में अग्रभाग में सर्प निवास करते हैं। ‘जल से परिपूर्ण चारों समुद्र उसके चारों स्‍तन हैं ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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