महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णवधर्म पर्व भाग-40
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द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (वैष्णवधर्म पर्व)
यदि अनजान में इनका अन्न ग्रहण कर लिया गया हो तो तीन दिन तक उपवास करना चाहिये; किंतु जान-बूझकर एक बार भी इनका अन्न खा लेने पर ब्राह्मण को प्राजापत्य व्रत का आचरण करना चाहिये। पाण्डुनन्दन ! अब मैं दानों का यथार्थ फल बता रहा हूं, सुनो । जल-दान करने वाले को तृप्ति होती है और अन्न देने वाले को अक्षय सुख मिलता है। तिल का दान करने वाला मनुष्य मन के अनुरूप संतान, दीप-दान करने वाला पुरुष उत्तम नेत्र, भूमि देने वाला भूमि और सुवर्ण-दान करने वाला दीर्घ आयु पाता है। गृह देने वाले को सुन्दर भवन और चांदी दान करने वाले को उत्तम रूप की प्राप्ति होती है । वस्त्र देने वाला चन्द्रलोक में अश्वदान करने वाला अश्विनी कुमारों के लोक में जाता है। गाड़ी ढोने वाले बैल का दान करने वाला मनोनुकूल लक्ष्मी को पाता है और गो-दान करने वाला पुरुष गोलोक के सुख का अनुभव करता है । सवारी और शय्या-दान करने वाले पुरुष को स्त्री की तथा अभय दान देने वाले को ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। धान्य दान करने वाला मनुष्य शाश्वत सुख पाता है और वेद प्रदान करने वाला पुरुष परब्रह्मा की समता को प्राप्त होता है । वेद का दान सब दानों में श्रेष्ठ है। जो सोना, पृथ्वी, गौ, अश्व, बकरा, वस्त्र, शय्या और आसन आदि वस्तुओं को सम्मान पूर्वक ब्रहण करता है तथा जो दाता न्यायनुसार आदरपूर्वक दान करता है, वे दोनों ही स्वर्ग में जाते हैं; परन्तु जो इसके विपरीत अनुचित रूप से देते और लेते हैं, उन दोनों को नरक में गिरना पड़ता है। विद्वान पुरुष कभी झूठ न बोले, तपस्या करके उस पर गर्व न करे, कष्ट में पड़ जाने पर भी ब्राह्मणों का अनादर न करे तथा दान देकर उसका बखान न करे। झूठ बोलने से यज्ञ का क्षय होता है, गर्व करने से तपस्या का क्षय होता है, ब्राह्मण के अपमान से आयु का और अपने मुंह से बखान करने पर दान का नाश हो जाता है। जीव अकेले जन्म लेता है, अकेले मरता है तथा अकेले ही पुण्य का फल भोगता है और अकेले ही पाप का फल भोगता है। बन्धु-बान्धव मनुष्य के मरे हुए शरीर को काठ और मिट्टी के ढेले के समान पृथ्वी पर डालकर मुंह फेरकर चल देते हैं । उस समय केवल धर्म ही जीव के पीछे-पीछे जाता है। मनुष्य का मन भविष्य के कार्यों को करने का हिसाब लगाया करता है, किन्तु काल उसके नाशवान शरीर को लक्ष्य करके मुसकराता रहता है; इसलिये धर्म को ही सहायक मानकर सदा उसी के संग्रह में लगे रहना चाहिये; क्योंकि धर्म की सहायता से मनुष्य दुस्तर नरक के पार हो जाता है। जिन्होनें अधिक जल से भरे हुए अनेक सरोवर, धर्मशालाएं, कुएं और पौंसले बनवाये हैं तथा जो सदा अन्न का दान करते हैं और मीठी वाणी बोलते हैं, उन पर यमराज का जोर नहीं चलता। युधिष्ठिर ने पूछा – राजन् ! तुम धर्म और शौच की विधि का क्रम सुनो । राजेन्द्र ! अहिंसा, शौच, क्रोध का अभाव, कू्रता का अभाव, दम, शम और सरलता- ये धर्म के निश्चित लक्षण हैं। ब्रह्मचर्य, तपस्या, क्षमा, मधु-मांस का त्याग, धर्म-मर्यादा के भीतर रहना और मन को वश में रखना- ये सब शौच (पवित्रता) के लक्षण हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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