महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णवधर्म पर्व भाग-50

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द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्‍वमेधिक पर्व (वैष्णवधर्म पर्व)

महाभारत: आश्‍वमेधिक पर्व: द्विनवतितम अध्याय: भाग-50 का हिन्दी अनुवाद

गार्हपत्‍य अग्‍नि ब्रह्मा का स्‍वरूप है, क्‍योंकि ब्रह्माजी से ही उसका प्रादुर्भाव हुआ है और यह दक्षिणाग्‍नि रुद्रस्‍वरूप है, क्‍योंकि वह क्रोध रूप और प्रचण्‍ड है। होम के आरम्‍भ से लेकर अन्‍त तक जिसके मुख में आहुति डाली जाती है, वह आहवनीय अग्‍नि स्‍वयं मैं हूं। जो मनुष्‍य भक्‍ति युक्‍त चित्‍त से प्रतिदिन आहवनीय अग्‍नि में हवन करता है, वह पृथ्‍वी, अंतरिक्ष और ऋषियों-सहित स्‍वर्गलोक पर भी अधिकार प्राप्‍त कर लेता है। यज्ञों में सब ओर से अग्‍नि के मुख में हवन किया जाता है, इसलिये वह अत्‍यन्‍त कान्‍तिमान अग्‍नि ‘आहवनीय’ संज्ञा को प्राप्‍त होता है। अग्‍निहोत्र अथवा अन्‍याय यज्ञों में होम के आरम्‍भ से ही अग्‍नि के भीतर सब प्रकार से आहुति डाली जाती है, इसलिये भी उसे आहवनीय कहते हैं। नरेश्‍वर ! आत्‍मवेत्‍ता विद्वानों ने आध्‍यात्‍मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक- ये तीन प्रकार के दु:ख बतलाये हैं। विधिवत होम करने पर अग्‍नि इन तीनों प्रकार के दु:खों से यजमान का त्राण करता है, इसलिये उस कर्म को वेद में अग्‍निहोत्र नाम दिया गया है। विश्‍वविधाता ब्रह्माजी ने ही सबसे पहले अग्‍निहोत्र को प्रकट किया । वेद और अग्‍निहोत्र स्‍वत: उत्‍पन्‍न हुए हैं। वेदाध्‍ययन का फल अग्‍नहोत्र है (अर्थात वेद पढ़कर जिसने अग्‍नहोत्र नहीं किया, उसका वह अध्‍ययन निष्‍फल है) । शास्‍त्रज्ञान का फल शील और सदाचार है, स्‍त्री का फल रति और पुत्र है तथा धन की सफलता दान और उपभोग करने में हैं। तीनों वेदों के मंत्रों के संयोग से अग्‍निहोत्र की प्रवृत्‍ति होती है। ऋक्, यजु: और सामवेद के पवित्र मंत्रों तथा मीमांसा सूत्रों क द्वारा अग्‍निहोत्र-कर्म का प्रतिपादन किया जाता है। नरेश्‍वर ! वसन्‍त-ऋतु को ब्राह्मण का स्‍वरूप समझना चाहिये तथा वह वेद की योनिरूप है, इसलिये ब्राह्मण को वसन्‍त-ऋतु में अग्‍नि की स्‍थापना करनी चाहिये। निरूपाप ! जो वसन्‍त-ऋतु में अग्‍न्‍याधान करता है, उस ब्राह्मण की श्रीवृद्धि होती है तथा उसका वैदिक ज्ञान भी बढ़ता है। राजन् ! क्षत्रिय के लिये ग्रीष्‍म–ऋतु में अग्‍न्‍याधान करना श्रेष्‍ठ माना गया है । जो क्षत्रिय ग्रीष्‍म-ऋतु में अग्‍नि-स्‍थापना करता है, उसकी सम्‍पत्‍ति, प्रजा, पशु, धन, तेज, बल और यश की अभिवृद्धि होती है। शरत्‍काल की रात्रि साक्षात वैश्‍य का स्‍वरूप है, इसलिये वैश्‍य को शरद-ऋतु में अग्‍नि का आधान करना चाहिये; उस समय की स्‍थापित की हुई अग्‍नि को वैश्‍य योनि कहते हैं। पाण्‍डुनन्‍दन ! जो वैश्‍य शरद-ऋतु में अग्‍नि की स्‍थापना करता है, उसकी सम्‍पत्‍ति, प्रजा, आयु, पशु और धन की वृद्धि होती है। सब प्रकार के रस, घी आदि स्‍निग्‍ध पदार्थ, सुगन्‍धित द्रव्‍य, रत्‍न, मणि, सुवर्ण और लोहा- इन सबकी उत्‍पत्‍ति अग्‍निहोत्र के लिये ही है। अग्‍निहोत्र को ही जानने के लिये आयुर्वेद, धनुर्वेद, मीमांसा, विस्‍तृत न्‍याय-शास्‍त्र और धर्मशास्‍त्र का निर्माण किया गया है। छन्‍द, शिक्षा, कल्‍प, व्‍याकरण, ज्‍यौतिष शास्‍त्र और निरुक्‍त भी अग्‍निहोत्र के लिये रचे गये हैं। इतिहास, पुराण, गाथा, उपनिषद् और अथर्ववेद के कर्म भी अग्‍निहोत्र के लिये ही हैं। निष्‍पाप ! तिथि, नक्षत्र, योग, मुहुर्त और करणरूप काल का ज्ञान प्राप्‍त करने के लिये पूर्वकाल में ज्‍यौतिष-शास्‍त्र का निर्माण हुआ है। ऋग्‍वेद, यजुर्वेद और सामवेद के मन्‍त्रों के छन्‍द का ज्ञान प्राप्‍त करने के लिये तथा संशय और विकल्‍प के निराकरण पूर्वक उनका तात्‍विक अर्थ समझने के लिये छन्‍द:शास्‍त्र की रचना की गई है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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