महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 श्लोक 1-19

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द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्‍वमेधिकपर्व (अनुगीता पर्व)

महाभारत: आश्‍वमेधिकपर्व: द्विनवतितम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद
महर्षि अगस्‍त्‍य के यज्ञ की कथा

जनमेजय ने कहा – भगवन् ! धर्म के द्वारा प्राप्‍त हुए धन का दान करने से यदि स्‍वर्ग मिलता है तो यह सब विषय मुझे स्‍वष्‍ट रूप से बताइये ; क्‍योंकि आप प्रवचन करने में कुशल हैं। ब्रह्मण ! उंछवृत्‍ति धारण करने वाले ब्राह्मण को न्‍यायत: प्राप्‍त हुए सत्‍तू का दान करने से जिस महान् फल की प्राप्‍ति हुई, उसका आपने मुझसे वर्णन किया । निस्‍संदेह यह सब ठीक है। परंतु सभी यज्ञों में यह उत्‍तम निश्‍चय कैसे कार्यान्‍वित किया जा सकता है । द्विजश्रेष्‍ठ ! इस विषय का मुझसे पूर्णत: प्रतिपादन कीजिये। वैशम्‍पायनजी ने कहा – राजन् ! इस विषय में पहले अगस्‍त्‍य मुनि के महान् यज्ञ में जो घटित हुई थी, उस प्राचीन इतिहास का जानकर मनुष्‍य उदाहरण दिये करते हैं। महाराज ! पहले की बात है, सम्‍पूर्ण प्राणियों के हित में रत रहने वाले महातेजस्‍वी अगस्‍त्‍य मुनि ने एक समय बारह वर्षों में समाप्‍त होने वाले यज्ञ की दीक्षा ली। उन महात्‍मा के यज्ञ में अग्‍नि के समान तेजस्‍वी होता थे । जिनमें फल, मूल का आहार करने वाले, अश्‍मकुद्द[१], मरीचिप[२], परिपृष्‍टिक[३], वैघसिक[४] और प्रसंख्‍यान[५] आदि अनेक प्रकार के यति एवं भिक्षु उपस्‍थित थे। वे सब – के – सब प्रत्‍यक्ष धर्म का पालन करने वाले, क्रोध – विजयी, जितेन्‍द्रीय, मनोनिग्रहपरायण, हिंसा और दम्‍भ से रहित तथा सदा शुद्ध सदाचार में स्‍थित रहने वाले थे । उन्‍हें किसी भी इन्‍द्रिय के के द्वारा कभी बाधा नहीं पहुंचती थी । ऐसे – ऐसे महर्षि वह यज्ञ कराने के लिये वहां उपस्‍थित थे। भगवान अगस्‍त्‍य मुनि उस यज्ञ के लिये यथाशक्‍ति विशुद्ध अन्‍न कासंग्रह किया था। उस समय उस यज्ञ में वही हुआ, जो उसके योग्‍य था। उनके सिवा और भी अनेक मुनियों ने बड़े – बड़े यज्ञ किये थे । भरतश्रेष्‍ठ ! महर्षि अगस्‍त्‍य का ऐसा यज्ञ जब चालू हो गया, तब देवराज इन्‍द्र ने वहां वर्षा बंद कर दी। राजन् ! तब यज्ञ कर्म के बीच में अवकाश मिलने पर जब विशुद्ध अन्‍त: करण वाले मुनि एक – दूसरे से मिलकर एक स्‍थान पर बैठे, तब उनमें महात्‍मा अगस्‍त्‍यजी के सम्‍बन्‍ध में इस प्रकार चर्चा होने लगी -‘महर्षियों ! सुप्रसिद्ध अगत्‍स्‍य मुनि हमारे यजमान हैं । वे ईर्ष्‍यारहित हो श्रद्धापूर्वक सबको अन्‍न देते हैं । परंतु इधर मेघ जल की वर्षा नहीं कर रहा है । तब भविष्‍य में अन्‍न कैसे पैदा होगा ? ‘ब्राह्मणों ! मुनि का यह महान् सत्र बारह वर्षों तक चालू रहने वाला है ; परंतु इन्‍द्रदेव इन बारह वर्षों में वर्षा नहीं करेंगे। ‘यह सोचकर आप लोग इन अत्‍यन्‍त तपस्‍वी बुद्धिमान महर्षि अगस्‍त्‍य पर अनुग्रह करें ( जिससे इनका यज्ञ निर्विघ्‍न पूर्ण हो जाय )’। उनके ऐसा कहने पर प्रतापी अगस्‍त्‍य उन मुनियों को सिर से प्रणाम करके उन्‍हें राजी करते हुए इस प्रकार बोले -‘यदि इन्‍द्र बारह वर्षों तक वर्षा नहीं करेंगे तो मैं चिन्‍तन मात्र के द्वारा मानसिक यज्ञ करूंगा । यह यज्ञ की सनातन विधि है। ‘यदि इन्‍द्र बारह वर्षों तक वर्षा नहीं करेंगे तो मैं स्‍पर्श यज्ञ करूंगा । यह भी यज्ञ की सनातन विधि है’। ‘यदि इन्‍द्र बारह वर्षों तक वर्षा नहीं करेंगे तो मैं स्‍पर्श यज्ञ करूंगा । यह भी यज्ञ की सनातन विधि है’।[६]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. खाद्य पदार्थ की पत्थर पर फोड़कर खाने वाले।
  2. सूर्य की किरणों का पान करने वाले।
  3. पूछकर दिये हुए अन्न को ही लेने वाले।
  4. यज्ञशिष्ट अन्न को ही भोजन करने वाले।
  5. तत्व का विचार करने वाले।
  6. संचित अन्नद्य व्यय किये बिना ही उसके स्पर्श मात्र से देवताओं को तृप्त करने की जो भावना है, उसका नाम स्पर्श यश है।

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