महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 9 श्लोक 13-26

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नवम (9) अध्याय: आश्‍वमेधिक पर्व (अश्वमेध पर्व)

महाभारत: आश्‍वमेधिक पर्व: नवम अध्याय: श्लोक 13-26 का हिन्दी अनुवाद

मरुत्त ने कहा- अग्रिदेव! श्रीमान् देवराज सुखी तो हैं न? धूमकेतो! वे हम लोगों पर प्रसन्न हैं न? सम्पूर्ण देवता उनकी आज्ञा के अधीन रहते हैं न? देव! ये सारी बातें आप मुझे ठीक-ठीक बताइये अग्रिदेव ने कहा- राजेन्द्र! देवराज इन्द्र बड़े सुख से हैं और आपके साथ अटूट मैत्री जोड़ना चाहते हैं। सम्पूर्ण देवता भी उनके अधीन ही हैं। अब आप मुझ से देवराज इन्द्र का संदेश सुनिये। उन्होंने जिस काम के लिये मुझे आपके पास भेजा हैं, उसे सुनिये। वे मेरे द्वारा बृहस्पतिजी को आपके पास भेजना चाहते हैं। उन्होंने कहा है कि बृहसपतिजी आपके गुरु हैं। अत: यह ही आपका यज्ञ करायेंगे। आप मरणधर्म मनुष्य हैं। ये आपको अमर बना देंगे। मरुत्त ने कहा- भगवन! मेरा यज्ञ ये विप्रवर संवर्तजी करायेंगे। बृहस्पतिजी के लिये मो मेरी यह अन्जलि जुड़ी हुई है। महेन्द्र का यज्ञ कराकर अब मेरे- जैसे मरणधर्मा मनुष्य का यज्ञ कराने में उनकी शोभा नहीं है।
अग्रिदेव ने कहा- राजन! यदि बृहस्पतिजी आपका यज्ञ करायेंगे तो देवराज इन्द्र के प्रसाद से देवलोक के भीतर जितने बड़े-बड़े लोक हैं, वे सीाी आपके लिये सुलभ हो जायेंगे। निश्चिय ही आप यशस्वी होने के साथ ही स्वर्ग पर भी विजय प्राप्त कर लेंगे। मानवलोक, दिव्यलोक, महान प्रजापति लोक और सम्पूर्ण देवराज्य पर भी आपका अधिकार हो जायगा। संवर्त ने कहा- अग्रे! तुम मेरी इस बात को अच्छी तरह समझ लो कि अब से फिर कभी बृहस्पति को मरुत्त के पास पहुँचाने के लिये तुम्हें यहाँ नहीं आना चाहिये। नहीं तो क्रोध में भरकर मैं अपनी दारुण दृष्टि से तुम्हें भस्म कर डालूँगा।व्यावजी कहते हैं- संवर्त की बात सुनकर अग्रिदेव भस्म होने के भय से व्यथित हो पीपल के पत्ते की तरह काँपते हुए तुरंत देवताओं के पास लौट गये। उन्हें आया देख महामना इन्द्र ने बृहस्पतिजी के सामने ही पूछा- ‘अग्रिदेव! तुम तो मेरे भेजने से बृहस्पतिजी को राजा मरुत्त के पास पहुँचाने का संदेश लेकर गये थे। बताओं, यज्ञ की तैयारी करनेवाले राजा मरुत्त क्या कहते हैं? वे मेरी बात मानते है या नहीं?’ अग्रि ने कहा- देवराज! राजा मरुत्त को आपकी बात पंसद नहीं आयी। बृहस्पतिजी को तो उन्होंने हाथ जोड़कर प्रणाम कहलाया है। मेरे बारंबार अनुरोध करने पर भी उन्होंने यही उत्तर दिया है कि ‘संवर्तजी ही मेरा यज्ञ करायेंगे’।
उन्होंने यह भी कहा है कि जो ‘जो मनुष्यलोक, दिव्यलोक और प्रजापति के महान लोक हैं, उन्हें भी यदि इन्द्र के साथ समझौता करके ही पा सकता हँू तो भी मैं बृहस्पतिजी को अपने यज्ञ का पुरोहित बनाना नहीं चाहता हूँ। यह मैं दृढ़ निश्चय के साथ कह रहा हूँ’। इन्द्र ने कहा- अग्रिदेव! एक बार फिर जाकर रजा मरुत्त से मिलो और मेरा अर्थयुक्त संदेश उनक पास पहुँचा दो। यदि तुम्हारे द्वारा दुबारा कहने पर भी मेरी बात नहीं मानेंगे तो मैं उनके ऊपर वज्र का प्रहार करूँगा। अग्रि ने कहा- देवेन्द्र! ये गन्धर्वराज वहाँ दूत बनकर जायँ। मैं दुबारा वहाँ जाने से डरता हूँ, क्योंकि ब्रह्मचारी संवर्त ने तीव्र रोष में भरकर मुझ से कहा था कि ‘अग्रे! यदि फिर इस प्रकार किसी तरह बृहस्पति को मरुत्त के पास पहुँचाने के लिये आओंगे तो मैं कुपित हो दारुण दूष्टि से तुम्हें भस्म कर डालूँगा।’ इन्द्र! उनकी इस बात को अच्छी तरह समझ लीजिये।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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