महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 73 श्लोक 1-16

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त्रिसप्ततितम (73) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: त्रिसप्ततितम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर को युद्ध के लिए प्रोत्साहन देना

श्रीभगवान बोले – राजन् ! मैंने संजय की और आप की भी बातें सुनी हैं । कौरवों का क्या अभिप्राय है, वह सब मैं जानता हूँ और आपका जो विचार है, उससे भी मैं अपरिचित नहीं हूँ। आपकी बुद्धि धर्म में स्थित है और उनकी बुद्धि ने शत्रुता का आश्रय ले रखा है । आप तो बिना युद्ध किए जो कुछ मिल जाये, उसी को बहुत समझेंगे। परंतु महाराज ! यह क्षत्रिय का नैष्ठिक ( स्वाभाविक ) कर्म नहीं है । सभी आश्रमों के श्रेष्ठ पुरुषों का यह कथन है कि क्षत्रिय को भीख नहीं मांगनी चाहिए। उसके लिए विधाता ने यही सनातन कर्तव्य बताया है कि वह संग्राम में विजय प्राप्त करे अथवा वहीं प्राण दे दे । यही क्षत्रिय का स्वधर्म है । दीनता अथवा कायरता उसके लिए प्रशंसा की वस्तु नहीं है। महाबाहु युधिष्ठिर ! दीनता का आश्रय लेने से क्षत्रिय की जीविका नहीं चल सकती । शत्रुओं को संताप देने वाले महाराज ! अब पराक्रम दिखाइये और शत्रुओं का संहार कीजिये। परंतप ! धृतराष्ट्र के पुत्र बड़े लोभी हैं । इधर उन्होनें बहुत-से मित्र राजाओं का संग्रह कर लिया है और उनके साथ दीर्घ काल तक रहकर अपने प्रति उनका स्नेह भी बढ़ा लिया है । ( शिक्षा और अभ्यास आदि के द्वारा भी ) उन्होनें विशेष शक्ति का संचय कर लिया है। अत: प्रजानाथ ! ऐसा कोई उपाय नहीं है, जिससे ( वे आपको आधा राज्य देकर ) आपके प्रति समता ( संधि ) स्थापित करें । भीष्म, द्रोण और कृपाचार्य आदि उनके पक्ष में हैं, इसलिए वे अपने को आप से अधिक बलवान समझते हैं। अत: शत्रूदमन राजन् ! जब तक आप इनके साथ नरमी का बर्ताव करेंगे, तब तक ये आपके राज्य का अपहरण करने की ही चेष्टा करेंगे। शत्रुमर्दन नरेश ! आप यह न समझें कि धृतराष्ट्र के पुत्र आप पर कृपा करके या अपने को दीन-दुर्बल मानकर अथवा धर्म एवं अर्थ की ओर दृष्टि रखकर आपका मनोरथ पूर्ण कर देंगे। पाण्डुनन्दन ! कौरवों के संधि न करने का सबसे बड़ा कारण या प्रमाण तो यही है कि उन्होनें आपको कौपीन धारण कराकर तथा उतने दीर्घकाल के लिए वनवास का दुष्कर कष्ट देकर भी कभी इसके लिए पश्चाताप नहीं किया ॥ राजन् ! आप दानशील, कोमलस्वभाव , मन और इंद्रियों को वश में रखनेवाले, स्वभावत: धर्मपरायण तथा सबके हैं, तो भी क्रूर दुर्योधन ने उस समय पितामह भीष्म, द्रोणाचार्य, बुद्धिमान विदुर, साधु, ब्राह्मण, राजा धृतराष्ट्र, नगरनिवासी जनसमुदाय तथा कुरुकुल के सभी श्रेष्ठ पुरुषों के देखते-देखते आपको जुए में छल से ठग लिया और आपने उस कुकृत्य के लिए वह अब तक लज्जा का अनुभव नहीं करता है ॥ राजन् ! ऐसे कुटिल स्वभाव और खोटे आचरण वाले दुर्योधन के प्रति आप प्रेम न दिखावें । भारत ! धृतराष्ट्र के वे पुत्र तो सभी लोगों के वध्य हैं; फिर आप उनका वध करें, इसके लिए तो कहना ही क्या है ? ( क्या आप वह दिन भूल गए, जब कि ) दुर्योधन ने भाइयों सहित आपको अपने अनुचित वचनों द्वारा मार्मिक पीड़ा पहुंचाई थी । वह अत्यंत हर्ष से फूलकर अपनी मिथ्या प्रशंसा करता हुआ अपने भाइयों के साथ कहता था – 'अब पांडवों के पास इस संसार में 'अपनी' कहने के लिए इतनी-सी भी कोई वस्तु नहीं रह गई है । केवल नाम और गोत्र बचा है, परंतु वह भी शेष नहीं रहेगा।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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