महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 72 श्लोक 72-87
द्विसप्ततितम (72) अध्याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)
श्रीकृष्ण! उनमें जो बलवान् होता है, वही उस मांस-को खाता हैं, जिसके लिये कि उनमें लड़ाई हुई थी। यही दशा मनुष्यों की है। इनमें कोई विशेषता नहीं है[१]। यह सर्वथा उचित है कि बलवानों की दुर्बलों के प्रति आदरबुद्धि न हो। वे उसका विरोध भी नहीं करते। दुर्बल वही है, जो सदा झुकने के लिये तैयार रहे। जनार्दन! पिता, राजा और वृद्ध सर्वथा समादर के ही योग्य हैं। अत: धृतराष्ट्र हमारे लिये सदा माननीय एवं पूजनीय हैं। माधव! धृतराष्ट्र में अपने पुत्र के प्रति प्रबल आसक्ति है। वे पुत्र के वश में होने के कारण कभी झुकना नहीं स्वीकार करेंगे। माधव श्रीकृष्ण! ऐसे समय में आप क्या उचित समझते हैं? हम कैसा बर्ताव करें, जिससे हमें अर्थ और धर्म से भी वञ्चित न होना पडे़? पुरूषोंत्तम मधुसूदन! ऐसे महान् संकट के समय हम आपकों छोड़कर और किससे सलाह ले सकते हैं। श्रीकृष्ण! आपके समान हमारा प्रिय, हितैषी, समस्त कर्मों के परिणाम को जानने वाला और सभी बातों में एक निश्चित सिद्धान्त रखने वाला सुहृद् कौन है?
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! धर्मराज युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर भगवान् श्रीकृष्ण ने उनसे कहा- ‘राजन्! मैं दोनों पक्षों के हित के लिये कौरवों की सभा में जाऊंगा ।।७९।। ‘वहां जाकर आपके लाभ में किसी प्रकार की बाधा न पहुंचाते हुए यदि मैं दोनों पक्षों में संधि करा सका, तो समझूंगा कि मेरे द्वारा यह महान् फलदायक एवं बहुत बड़ा पुण्यकर्म सम्पन्न हो गया। ‘ऐसा होने पर एक-दूसरे के प्रति रोष में भरे हुए इन कौरवों, सृंजयों, पाण्डवों और धृतराष्ट्र पुत्रों को तथा इस सारी पृथ्वी को भी मानो मैं मौत के फंदे से छुड़ा लूंगा’।
युधिष्ठिर बोले- श्रीकृष्ण! मेरा यह विचार नहीं है कि आप कौरवों के यहां जायं; क्योंकि आपकी कड़ी हुई अच्छी बातों को भी दुर्योधन नहीं मानेगा । इसके सिवा इस समय दुर्योधन के वश में रहने वाले भूमण्डल के सभी क्षत्रिय वहां एकत्र हुए हैं। उनके बीच में आपका जाना मुझे अच्छा नहीं लगता । माधव! यदि दुर्योधन ने द्रोहवश आपके साथ कोई अनुचित बर्ताव किया, तो धन, सुख, देवत्य तथा सम्पूर्ण देवताओं का ऐश्वर्य भी हमें प्रसन्न नहीं कर सकेगा।
श्रीभगवान् ने कहा- महाराज! धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन कितना पापाचारी है, यह मैं जानता हूं। तथापि वहां जाकर संधि के लिये प्रयत्न करने पर हम सब लोग सम्पूर्ण जगत् के राजाओं की दृष्टि में निंदा के पात्र न होगें। (मेरे तिरस्कार के भय से भी चिन्तित न हों, कयोंकि) जैसे क्रोध में भरे हुए सिंह के समान दूसरे पशु नहीं ठहर सकते हैं, उसी प्रकार यदि मैं कोप करूं, तो संसार के सारे भूपाल भी मिलकर युद्ध में मेरे सामने खड़े नहीं हो सकते हैं। यदि वे मेरे साथ थोड़ा-सा भी अनुचित बर्तावकरेंगे, तो मैं उन समस्त कौरवों को जलाकर भस्म कर डालूंगा; यह मेरा निश्र्चित विचार है। अत: कुंतीनंदन! मेरा वहां जाना कदापि निरर्थक नहीं होगा। सम्भव है, वहां अपने अभीष्ट अर्थ की सिद्धि हो जाय ओर यदि काम न बना, तो भी हम निंदा से तो बच जायंग।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कुत्तों के दुम हिलाने के समान राजाओं का ध्वज-कम्पन है, उनके गुर्राने की जगह उनका सिंहनाद है। कुत्ते जो एक-दूसरे को देखकर गर्जते हैं, उसी प्रकार दो विरोधी क्षत्रिय एक-दूसरे के प्रति उत्तर-प्रत्युत्तर के रूप में आक्षेपजनक बातें कहते है। एक-दूसरे के निकट जाना दोनों में समानरूप से होता है। राजा लोग क्रोध में आकर जो दांतों से होठ चबाते हैं, यही कुत्तों के समान उनका दांत दिखाना है। निकट गर्जन-तर्जन भूकना है और युद्ध करना ही कुत्तों के समान लड़ना हैं। राज्य की प्राप्ति ही वह मांस का टुकड़ा है, जिसके लिये उनमें लड़ाई होती है।