महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 127 श्लोक 19-25
सप्तविंशत्यधिकशततम (127) अध्याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)
‘वीर पुरुष को चाहिए की वह सदा उद्योग ही करे, किसी के सामने नतमस्तक न हो, क्योंकि उद्योग करना ही पुरुष का कर्तव्य-पुरुषार्थ है । वीर पुरुष असमय में ही नष्ट भले हो जाये, परंतु कभी शत्रु के सामने सिर न झुकावे। ‘अपना हित चाहनेवाले मनुष्य मातङ्ग मुनि के उपयुर्क्त वचन को ही ग्रहण करते हैं, अत: मेरे जैसा पुरुष केवल धर्म तथा ब्राह्मण को ही प्रणाम कर सकता है (शत्रुओं को नहीं) ॥ ‘वह दूसरे किसी को कुछ भी न समझकर जीवनभर ऐसा ही आचरण (उद्योग) करता रहे, यही क्षत्रियों का धर्म है और सदा के लिए मेरा मत भी यही है। ‘केशव ! मेरे पिताजी ने पूर्वकाल में जो राज्यभाग मेरे अधीन कर दिया है, उसे कोई मेरे जीते जी फिर कदापि नहीं पा सकता। ‘जनार्दन ! जब तक राजा धृतराष्ट्र जीवित हैं, तब तक हमें और पाँडवों को हथियार न उठाकर शांतिपूर्वक जीवन बिताना चाहिए । वृष्णिनन्दन श्रीकृष्ण ! पहले भी जो पाँडवों को राज्य का अंश दिया गया था, वह उन्हें देना उचित नहीं था, परंतु में उन दिनों बालक एवं पराधीन था, अत: अज्ञान अथवा भय से जो कुछ उन्हें दे दिया गया था, उसे अब पांडव पुन: नहीं पा सकते। ‘केशव ! इस समय मुझ महाबाहु दुर्योधन के जीते-जी पाँडवों को भूमि का उतना अंश भी नहीं दिया जा सकता, जितना कि एक बारीक सुई कि नोक से छिद सकता है’।
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