महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 147 श्लोक 1-23
सप्तचत्वारिंशदधिकशततम (147) अध्याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)
युधिष्ठिर के पूछने पर श्रीकृष्ण कौरव सभा में व्यक्त किये हुए भीष्मजी के वचन सुनाना
वैशम्पायनजी कहते हैं—जनमेजय ! शत्रुओं का दमन करनेवाले भगवान श्रीकृष्ण ने हस्तिनापुर से उपप्लब्य में आकर पाण्डवों से वहाँ का सारा वृतान्त ज्यों-का-त्यों कह सुनाया। दीर्घकालतक बातचीत करके बारंबार गुप्त मन्त्रणा करने के पश्चात भगवान श्रीकृष्ण विश्राम के लिये अपने वासस्थान को गये। तदन्तर सूर्यास्त होनेपर पाँचों भाई पाण्डव विराट आदि सब राजाओं को विदा करके संध्योपासना करने के पश्चात भगवान श्रीकृष्ण में ही मन लगाकर कुछ कालतक उन्हीं को ध्यान करते रहे। फिर दशार्हकुलभूष्ण श्रीकृष्ण को बुलाकर वे उनके साथ गुप्त मन्त्रणा करने लगे युधिष्ठिर बोले- कमलनयन ! आपने हस्तिनापुर जाकर कौरवसभा में ध्रतराष्ट्र दुर्योधन से क्या कहा, यह हमें बताने की कृपा करें। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- राजन मैंने हस्तिनापुर जाकर कौरवसभा में धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन से यथार्थ लाभदायक और हितकर बात कही थी; परंतु वह दुर्बुद्धि उसे स्वीकार नहीं करता था। युधिष्ठिर ने पूछा- ह्रषीकेश ! दुर्योधन के कुमार्ग का आश्रय लेनेपर कुरूकुल के व्रद्ध पुरूष पितामह भीष्म ने ईर्ष्या और अमर्ष में भरे हुए दुर्योधन से क्या कहा? महाभाग ! भरद्वाजनन्दन आचार्य द्रोण ने उस समय क्या कहा? पिता धृतराष्ट्र और गांधारीने भी दुर्योधन से उस समय क्या बात कही। हमारे छोटे चाचा धर्मशों में श्रेष्ठ विदुर ने भी, जो हम पुत्रों शोक से सदा सर्वदा संतप्त रहते हैं, दुर्योधनसे क्या कहा? जनार्दन ! इसके सिवा जो समस्त राजालोग सभा में बैठे थे, उन्होंने अपना विचार किस रूप में प्रकट किया? आप इन सब बातों को ठीक-ठीक बताइये। कृष्ण ! आपने कौरवसभा में निश्चय ही कुरूश्रेष्ठ भीष्म और धृतराष्ट्र के समीप सब बातें कह दी थी। परंतु आप की ओर उनकी सब बातों को मेरे लिये हितकर होने के कारण अपने लिये अप्रिय मानकर सम्भवत: काम और लोभसे अभिभूत मूर्ख एवं पण्डितमानी दुर्योधन अपने ह्रदय में स्थान नहीं देता। गोविन्द ! मैं उन सबकी कही हुई बातों को सुनना चाहता हूँ। तात ! ऐसा कीजिये, जिससे हमलोगों का समय व्यर्थ न बीते। श्रीकृष्ण ! आप ही हमलोगों के आश्रय, आप ही रक्षक तथा आप ही गुरू हैं। श्रीकृष्ण बोले- राजेन्द्र ! मैंने कौरवसभा में राजा दुर्योधन से जिस प्रकार बातें की हैं, वह बताता हूं; सुनिये। मैंने जब अपनी बात दुर्योधन से सुनायी, तब वह हंसने लगा। यह देख भीष्मजी अत्यन्त कुपित हो उससे इस प्रकार बोले-'दुर्योधन ! मैं अपने कुल के हित के लिये तुमसे जो कुछ कहता हूं, उसे ध्यान देकर सुनो। नृपश्रेष्ठ ! उसे सुनकर अपने कुलाक हितसाधन करो।तात ! मेरे पिता शान्तनु विश्वविख्यात नरेश थे, जो पुत्रवानों में श्रेष्ठ समझे जाते थे। राजन मैं उनका इकलौता पुत्र था। अत: उनके मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि मेरे दूसरा पुत्र कैसे हो? क्योंकि मनीषी पुरूष एक पुत्रवाले को पुत्रहीन ही बताते हैं। किस प्रकार इस कुल का उच्छेद न हो और इसके यश का सदा विस्तार होता रहे—उनकी आन्तरिक इच्छा जानकर मैं कुल की भलाई और पिता की प्रसन्नता के लिये राजा न होने और जीवनभर ऊर्ध्वरेखा (नैष्ठिक ब्रह्रचारी) रहने की दुष्कर प्रतिज्ञा करके माता काली (सत्यवती) को ले आया। ये सारी बातें तुमको अच्छी तरह ज्ञात हैं। मैं उसी प्रतिज्ञा का पालन करता हुआ सदा प्रसन्नतापूर्वक यहां निवास करता हूं। राजन! सत्यवती के गर्भ से कुरूकुल का भार वहन करने वाले धर्मात्मा महाबाहु श्रीमान विचित्रवीर्य उत्पन्न हुए, जो मेरे छोटे भाई थे। पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर मैंने अपने राज्यपर राजा विचित्रवीर्य को ही बिठाया और स्वयं उनका सेवक होकर राज्यसिंहासन से नीचे खड़ा रहा। राजेन्द्र ! उनके लिये राजाओं के समूह को जीतकर मैंने योग्य पत्नियां ला दीं। यह वृतान्त भी तुमने बहुत बार सुना होगा।
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