महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 160 श्लोक 44-63
षष्टयधिकशततम (160) अध्याय: उद्योग पर्व (उलूकदूतागमन पर्व)
राजन् ! नरश्रेष्ठ ! यदि तुम धर्मनिष्ठ हो तो यह छल-छद्म छोड़कर क्षत्रिय-धर्मका आश्रय ले उसीके अनुसार सब कार्य करो। भरतश्रेष्ठ ! अपने बाहुबलसे इस पृथ्वीका राज्य प्राप्त करके तुम ब्राह्माणों को दान दो और पितरोंका उनका यथोचित भाग अर्पण करो। तुम्हारी माता वर्षोंसे कष्ट भोग रही है; अत: माताके हितमें तत्पर हो उसके आंसू पोंछो और युद्धमें विजय प्राप्त करके परम सम्मानके भागी बनो। तुमने केवल पाँच गाँव माँगे थे, परंतु हमने प्रयत्नपूर्वक तुम्हारी वह माँग इसलिये ठुकरा दी है कि पाण्डवोंको किसी प्रकार कुपित करें, जिससे संग्राम-भूमि में उनके साथ युद्ध करनेका अवसर प्राप्त हो। तुम्हारे लिये ही मैंने दुष्टात्मा विदुरका परित्याग कर दिया है। लाक्षागृह में अपने जलाये जानेकी घटनाका स्मरण करो और अबसे भी मर्द बन जाओ। तुमने कौरव-सभामें आये हुए श्रीकृष्णसे जो यह संदेश दिलाया था कि राजन् ! मैं शान्ति और युद्ध दोनों के लिये तैयार हूं। नरेश्वर ! उस समरका यह उपयुक्त अवसर आ गया है। युधिष्ठिर ! इसीके लिये मैंने यह सब कुछ किया है। भला, क्षत्रिय युद्धसे बढकर दूसरे किस लाभको मात्व देता है इसके सिवा, तुमने भी तो क्षत्रियकुलमें उत्पन्न होकर इस पृथ्वीपर बडी ख्याति प्राप्त की है। भरतश्रेष्ठ !द्रोणाचार्य और कृपाचार्यसे अस्त्र-विद्या प्राप्त करके जाति और बलमें हमारे समान होते हुए भी तुमने वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णका आश्रय ले रखा है (फिर तुम्हें युद्धसे क्यों डरना या पीछे हटना चाहिये)। उलूक ! तुम पाण्डवोंके समीप वासुदेव श्रीकृष्णसे भी कहना— जनार्दन ! अब तुम पूरी तैयारी और तत्परताकेसाथ अपनी और पाण्डवों की भलाई के लिये मेरे साथ युद्ध करो। तुमने सभामें मायाद्वारा जो विकट रूप बना लिया था; उसे पुन: उसी रूपमें प्रकट करके अर्जुनके साथ मुझपर धावा बोल दो। इन्द्रजाल, माया अथवा भयानक क्रत्या—ये युद्धमें हथियार उठाये हुए शूरवीर के क्रोध एवं सिंहनादको और भी बढा देती है (उसे डरा नहीं सकती)। हम भी मायासे आकाशमें उड़ सकते हैं, तथा रसातल या इन्द्रपुरीमें भी प्रवेश कर सकते हैं। इतना ही नहीं, हम अपने शरीरमें बहुत-से रूप भी प्रकट करके दिखा सकते हैं; परंतु इन सब प्रदर्शनोंसे न तो अपने अभीष्टकी सिद्धी होती है और न अपना शत्रु ही मानवीय बुद्धि अर्थात भयको प्राप्त हो सकता है। एकमात्र विधाता ही अपने मानसिक संकल्प मात्र से समस्त प्राणियों को वशमें कर लेता है । वार्ष्णेय ! तुम जो यह कहा करते थे कि मैं युद्धमें ध्रतराष्ट्र के सभी पुत्रों को मरवाकर उनका सारा उत्तम राज्य कुन्तीके पुत्रोंको दे दूँगा। तुम्हारा यह सारा भाषण संजयने मुझे सुना दिया था। तुमने यह भी कहा था कि ‘कौरवों ! मैं जिनका सहायक हूँ, उन्हीं सव्यसाची अर्जुनके साथ तुम्हारा वैर बढ रहा है, इत्यादि । अत: अब सत्यप्रतिज्ञ होकर पाण्डवों के लिये पराक्रमी बनो। युद्धमें अब प्रयत्नपूर्वक डट जाओ। हम तुम्हारी राह देखते हैं। अपने पुरूषत्व का परिचय दो। जो पुरूष शत्रुको अच्छी तरह समझ-बूझकर विशुद्ध पुरूषार्थका आश्रय ले शत्रुओंको शोकमग्न कर देता है, वही श्रेष्ठ जीवन व्यतीत करता है। श्रीकृष्ण ! मैं देखता हूं संसार में अकस्मात् ही तुम्हारा महान यश फैल गया है; परंतु अब इस समय हमें मालूम हुआ है कि जो लोग तुम्हारे पूजक है, वे वास्तव में पुरूषत्वका चिन्ह धारण करनेवाले हिजडे़ ही हैं। मेरे जैसे राजाको तुम्हारे साथ, विशेषत: कंसके एक सेवकके साथ लडनेके लिये कवच धारण करके युद्धभूमिमें उतरना किसी तरह उचित नहीं है।
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