महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 162 श्लोक 51-63
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द्विषष्टयधिकशततम (162) अध्याय: उद्योग पर्व (उलूकदूतागमन पर्व)
जुआरी शकुनिके पुत्र तात उलूक ! तुम जाओ और वैरके मूर्तिमान स्वरूप उस कृतघ्न, दुबुर्द्धि एवं कुलांगार दुर्योधनसे इस प्रकार कह दो-पापी दुर्योधन ! तू पाण्डवोंके साथ सदा कुटिल बर्ताव कराता आ रहा है । पापात्मन् ! जो किसीसे भयभीत न होकर अपने वचनोंका पालन करता है और अपने ही बाहुबलसे पराक्रम प्रकट करके शत्रुओंको युद्धके लिये बुलाता है, वही पुरूष क्षत्रिय है। कुलाधम ! तू पापी है ! देख, क्षत्रिय होकर और हमलोगोंको युद्धके लिये बुलाकर ऐसे लोगोंको आगे करके रणभूमिमें न आना, जो हमारे माननीय वृद्ध गुरूजन और स्नेहास्पद बालक हों। कुरूनन्दन ! तू अपने तथा भरणीय सेवकवर्गके बल ओर पराक्रमका आश्रय लेकर ही कुन्तीके पुत्रोंका युद्धके लिये आव्हान कर। सब प्रकारसे क्षत्रियत्वका परिचय दे। जो स्वयं सामना करनेमें असमर्थ होनेके कारण दूसरोंके पराक्रमका भरोसा करके शत्रुओंको युद्धके लिये ललकारता है, उसका यह कार्य उसकी नपुंसकता का ही सूचक है। तू तो दूसरोंके ही बलसे अपने आपको बहुत अधिक शक्तिशाली मानता है; परंतु ऐसा असमर्थ होकर तू हमारे सामने गर्जना कैसे कर रहा है। तत्पश्चात भगवान श्रीकृष्ण ने कहा–उलूक ! इसके बाद तू दुर्योधनसे मेरी यह बात भी कह देना—दुर्मते ! अब कल ही तू रणभूमिमें आ जा और अपने पुरूषत्व का परिचय दे। मूढ ! तू जो यह समझता है कि कुन्तीके पुत्रोंने श्रीकृष्णसे सारथी बननेका अनुरोध किया है, अत: वे युद्ध नहीं करेंगे । सम्भवत: इसीलिये तू मुझसे डर नहीं रहा है। परंतु याद रख, मैं चाहूं, तो इन सम्पूर्ण नरेशोंको अपनी क्रोधाग्निसे उसी प्रकार भस्म कर सकता हूं, जैसे आग घास-फूस को जला डालती है। किंतु युद्धके अन्ततक मुझे ऐसा करनेका अवसर न मिले; यही मेरी इच्छा है। राजा युधिष्ठिरके अनुरोधसे मैं जितेन्द्रिय महात्मा अर्जुन केयुद्ध करते समय उनके सारथिका काम अवश्य करूंगा। अब तु यदि तीनों लोकोंसे ऊपर उड़जाये अथवा धरती में समा जाय, तो भी (तू जहाँ-जहाँ जायेगा), वहाँ-वहाँ कल प्रात:काल अर्जुनका रथ पहुँचा हुआ देखेगा। इसके सिवा, तू जो भीमसेनकी कही हुई बातोंको व्यर्थ मानने लगा है, यह ठीक नहीं है। तू आज ही निश्चित रूपसे समझ ले कि भीमसेनने दु:शासन का रक्त पी लिया। तू पाण्डवोंके विपरीत कटुभाषण करता जा रहा है, परंतु अर्जुन, राजा युधिष्ठिर, भीमसेन तथा नकुल-सहदेव तुझे कुछ भी नहीं समझते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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