महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 168 श्लोक 1-17
अष्टषष्टयधिकशततम (168) अध्याय: उद्योग पर्व (रथातिरथसंख्यान पर्व)
कौरवपक्षके रथियों ओर अतिरथियोंका वर्णन, कर्ण और भीष्मका रोषपूर्वक संवाद तथा दुर्योधनद्वारा उसका निवारण
भीष्म कहते हैं—अचल और वृषक—ये साथ रहनेवाले दोनों भाई दुर्धर्ष रथी हैं, जो तुम्हारे शत्रुओंका विध्वंस कर डालेंगे। गान्धारदेशके ये प्रधान वीर मनुष्योंमें सिंह के समान पराक्रमी, बलवान्, अत्यन्त क्रोधी, प्रहार करनेमें कुशल, तरूण, दर्शनीय एवं महाबली हैं । राजन् ! यह जो तुम्हारा प्रिय सखा कर्ण है, जो तुम्हें पाण्डवों के साथ युद्धके लिये सदा उत्साहित करता रहता है और रणक्षेत्रमें सदा अपनी क्रूरता का परिचय देता है, बडा ही कटुभाषी , आत्मप्रशंसी और नीच है। यह कर्ण तुम्हारा मन्त्री, नेता और बन्धु बना हुआ है। यह अभिमानी तो है ही, तुम्हारा आश्रय पाकर बहुत ऊँचे चढ गया है। यह कर्ण युद्धभूमिमें न तो अतिरथी है और न रथी ही कहलाने योग्य है, क्योंकि यह मूर्ख अपने सहज कवच तथा दिव्य कुण्डलोंसे हीन हो चुका है। यह दूसरोंके प्रति सदा घृणाका भाव रखता है। परशुरामजी के अभिशापसे, ब्रह्रम्ण की शापोक्तिसे तथा विजयसाधक उपर्युक्त उपकरणोंको खो देनेसे मेरी द्रष्टि में यह कर्ण अधिरथी है। अर्जुनसे भिडनेपर यह कदापि जीवित नहीं बच सकता। यह सुनकर समस्त शसत्रधारियोंमें श्रेष्ठ द्रोणाचार्य भी बोल उठे—‘आप जैसा कहते हैं, बिल्कुल ठीक है । आपका यह मत कदापि मिथ्या नहीं है। ‘यह प्रत्येक युद्धमें घमंड तो बहुत दिखाता है; परंतु वहाँसे भागता ही देखा जाता है। कर्ण दयालु और प्रमादी है । इसलिये मेरी रायमें भी यह अर्धरथी है’। यह सुनकर राधानन्दन कर्ण क्रोधसे आंखें फाड-फाडकर देखने लगा और अपने वचनरूपी चाबुकसे पीडा देता हुआ भीष्मसे बोला। ’पितामह ! यद्यपि मैंने तुम्हारा कोई अपराध नहीं किया है तो भी सदा मुझसे द्वेष रखने के कारण तुम इसी प्रकार पग-पग पर मुझे अपने बाम्बाणों द्वारा इच्छानुसार चोट पहुँचाते रहते हो। मैं दुर्योधन के कारण यह सब कुछ चुपचाप सह लेता हूँ, परंतु तुम मुझे मूर्ख और कायर के समान समझते हो। तुम मेरे विषय में जो अर्धरथी होने का मत प्रकट कर रहे हो, इससे सम्पूर्ण जगत को नि:संदेह ऐसा ही प्रतीत होने लगेगा; क्योंकि सब यही जानते हैं कि गंगानन्दन भीष्म झूठ नहीं बोलते। तुम कौरवों के सदा अहित करते हो; परंतु राजा दुर्योधन इस बात को नहीं समझते हैं । तुम मेरे गुणों के प्रति द्वेष रखने के कारण जिस प्रकार राजाओं की मुझ पर विरक्त्िा कराना चाहते हो, वैसा प्रयत्न तुम्हारे सिवा दूसरा कौन कर सकता है इस समय युद्ध का अवसर उपस्थित है और समान श्रेणी के उदारचरित राजा एकत्र हुए हैं; ऐेसे अवसर पर आपस में भेद (फूट) उत्पन्न करने की इच्छा रखकर कौन पुरूष अपने ही पक्ष के योद्धा का इस प्रकार तेज और उत्साह नष्ट करेगा? कौरव ! केवल बड़ी अवस्था हो जाने, बाल पक जाने, अधिक धन का संग्रह कर लेने तथा बहुसंख्यक भाई-बन्धुओं के होने से ही किसी क्षत्रिय को महारथी नहीं गिना जा सकता। क्षत्रिय जाति में जो बल में अधिक हो, वही श्रेष्ठ माना गया है । ब्राह्माण वेदमन्त्रों के ज्ञान से, वैश्य अधिक धन से और शूद्र अधिक आयु होने से श्रेष्ठ समझे जाते हैं।
« पीछे | आगे » |