महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 178 श्लोक 1-23
अष्टसप्तत्यधिकशततम (178) अध्याय: उद्योग पर्व (अम्बोपाख्यान पर्व)
भीष्मजी कहते हैं- राजन्! अम्बा के ऐसा कहने पर कि प्रभो! भीष्म को मार डालिये। परशुरामजी ने रो-रोकर बार-बार प्रेरणा देने वाली उस कन्या से इस प्रकार कहा- ‘सुन्दरी! काशिराजकुमारी! मैं अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार किसी वेदवेत्ता ब्राह्मण को आवश्यकता हो तो उसी के लिये शस्त्र उठाता हूं। वैसा कारण हुए बिना इच्छानुसार हथियार नहीं उठाता। अत: इस प्रतिज्ञा की रक्षा करते हुए मैं तेरा दूसरा कौन-सा कार्य करूं ।‘राज्यकन्ये! भीष्म और शाल्व दोनों मेरी आज्ञा के अधीन होंगे। अत: निर्दोष अङ्गोंवाली सुन्दरी! मैं तेरा कार्य करूंगा। तू शोक न कर । ‘भाविनी! मैं किसी तरह ब्राह्मणों की आज्ञा के बिना हथियार नहीं उठाऊंगा, ऐसी मैंने प्रतिज्ञा कर कर रक्खी है’ । अम्बा बोली- भगवन्! आप जैसे हो सके वैसे ही मेरा दु:ख दूर करें। वह दु:ख भीष्म ने पैदा किया है; अत: प्रभो! उसी का शीघ्र वध कीजिये ।परशुरामजी बोले- काशिराज की पुत्री! तू पुन: सोचकर बता। यद्यपि भीष्म तेरे लिये वन्दनीय है, तथापि मेरे कहने से वह तेरे चरणों को अपने सिर पर उठा लेगा । अम्बा बोली- राम! यदि आप मेरा प्रिय करना चाहते हैं तो युद्ध में आमन्त्रित हो, असुर के समान गर्जना करने वाले भीष्म को मार डालिये और आपने जो प्रतिज्ञा कर रक्खी है, उसे भी सत्य कीजिये ।भीष्मजी कहते हैं- राजन्! परशुराम और अम्बा में जब इस प्रकार बातचीत हो रही थी, उसी समय परम धर्मात्मा ॠषि अकृमव्रण ने यह बात कही- ।महाबाहो! यह कन्या शरण में आयी हैं; अत: आपको इसका त्याग नहीं करना चाहिये। भृगुनन्दन राम! यदि युद्ध में आपके बुलाने पर भीष्म सामने आकर अपनी पराजय स्वीकार करे अथवा आपकी बात ही मान ले तो इस कन्या का कार्य सिद्ध हो जायगा । ‘महामुने राम! प्रभो! ऐसा होने से आपकी कही हुई बात सत्य सिद्ध होगी। वीरवर भार्गव! आपने समस्त क्षत्रियों को जीतकर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शुद्र ब्राह्मणों से द्वेष करेगा तो मैं उसे निश्चय ही मार डालूंगा। साथ ही भयभीत होकर शरण में आये हुए शरणार्थियों का परित्याग मैं जीते-जी किसी प्रकार नहीं कर सकूंगा और जो युद्ध में एकत्र हुए सम्पूर्ण क्षत्रियों को जीत लेगा, उस तेजस्वी पुरूष का भी मैं वध कर डालूंगा ।‘भृगुनन्दन राम! इस प्रकार कुरूकुल का भार वहन करने वाला भीष्म समस्त क्षत्रियों पर विजय पा चुका है; अत: आप संग्राम में उसके सामने जाकर युद्ध कीजिये’ ।परशुरामजी बोले- मुनिश्रेष्ठ! मुझे अपनी पहले की की हुई प्रतिज्ञा का स्मरण है, तथापि मैं ऐसा प्रयत्न करूंगा कि सामनीति से ही काम बन जाय । ब्रह्मन्! काशिराज की कन्या के मन में जो यह कार्य है, वह महान् है। मैं उसकी सिद्धि के लिये इस कन्या को साथ लेकर स्वयं ही वहां जाऊंगा, जहां भीष्म हैं । यदि युद्ध की स्पृहा रखने वाला भीष्म मेरी बात नहीं मानेगा तो मैं उस अभिमानी को मार डालूंगा; यह मेरा निश्चित विचार हैं । मेरे चलाते हुए बाण देहधारियों के शरीर में अटकते नहीं है। (उन्हें विदीर्ण करके बाहर निकल जाते हैं) यह बात तुम्हें पूर्वकाल में क्षत्रियों के साथ होने वाले युद्ध के समय ज्ञात हो चुकी है । ऐसा कहकर महातपस्वी परशुरामजी उन ब्रह्मवादी महर्षियों के साथ प्रस्थान करने का निश्चय करके उसके लिये उद्यत हो गये । तत्पश्चात् रातभर वहां रहकर प्रात:काल संध्योपासन, गायत्री-जप और अग्निहोत्र करके वे तपस्वी मुनि मेरा वध करने की इच्छा से उस आश्रम से चले । महाराज भरतनन्दन! फिर उन वेदवादी मुनियों को साथ ले परशुरामजी राजकन्या अम्बा के साथ कुरूक्षेत्र में आये । वहां भृगुश्रेष्ठ परशुरामजी को आगे करके उन सभी तपस्वी महात्माओं ने सरस्वती नदी के तट का आश्रय ले रात्रि में निवास किया ।
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