महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 178 श्लोक 46-67
अष्टसप्तत्यधिकशततम (178) अध्याय: उद्योग पर्व (अम्बोपाख्यान पर्व)
‘महान् व्रतधारी राम! मैं इन्द्र के भी भय से धर्म का त्याग नहीं कर सकता। आप प्रसन्न हों या न हों। आपको जो कुछ करना हो, शीघ्र कर डालिये ।विशुद्ध हृदय वाले परम बुद्धिमान् राम! पुराण में महात्मा मरूत्त के द्वारा कहा हुआ यह श्लोक सुनने में आता है कि यदि गुरू भी गर्व में आकर कर्तव्य और अकर्तव्य को न समझते हुए कुपथ का आश्रय ले तो उसका परित्याग कर दिया जाता है । ‘आप मेरे गुरू हैं, यह समझकर मैंने प्रेमपूर्वक आपका अधिक-से-अधिक सम्मान किया है; परंतु आप गुरूका-सा बर्ताव नहीं जानते; अत: मैं आपके साथ युद्ध करूंगा । ‘एक तो आप गुरू हैं। उसमें भी विशेषत: ब्राह्मण हैं। उस पर भी विशेष बात यह है कि आप तपस्या में बढे़-चढे़ हैं। अत: आप-जैसे पुरूष को मैं कैसे मार सकता हूं? यही सोचकर मैंने अब तक आपके तीक्ष्ण बर्ताव को चुपचाप सह लिया । ‘यदि ब्राह्मण भी क्षत्रिय की भांति धनुष-बाण उठाकर युद्ध में क्रोधपूर्वक सामने आकर युद्ध करने लगे और पीठ दिखाकर भागे नहीं तो उसे इस दशा में देखकर जो योद्धा मार डालता है, उसे ब्रह्महत्या का दोष नहीं लगता, यह धर्मशास्त्रों का निर्णय है। तपोधन! मैं क्षत्रिय हूं और क्षत्रियों के ही धर्म में स्थित हूं । ‘जो जैसा बर्ताव करता है, उसके साथ वैसा ही बर्ताव करने वाला पुरूष न तो अधर्म को प्राप्त होता हैं और न अमङ्गल-का ही भागी होता है । ‘अर्थ (लौकिक कृत्य) और धर्म के विवेचन में कुशल तथा देश-काल के तत्त्व को जानने वाला पुरूष यदि अर्थ के विषय में संशय उत्पन्न होने पर उसे छोड़कर संशयशून्य हृदय से केवल धर्म का ही अनुष्ठान करे तो वह श्रेष्ठ माना गया है ।‘राम! ‘अम्बा ग्रहण करने योग्य है या नहीं’ यह संशयग्रस्त विषय है तो भी आप इसे ग्रहण करने के लिये मुझसे न्यायाचित बर्तावनहीं कर रहे हैं; इसलिये महान् समराङ्गण में आप के साथ युद्ध करूंगा| ‘आप उस समय मेरे बाहुबल और अलौकिक पराक्रम को देखियेगा। भृगुनन्दन! ऐसी स्थिति में भी मैं जो कुछ कर सकता हुं, उसे अवश्य करूंगा। विप्रवर! मैं कुरूक्षेत्र में चलकर आपके साथ युद्ध करूंगा। महातेजस्वी राम! आप द्वन्द्वयुद्ध के लिये इच्छानुसार तैयारी कर लीजिये । ‘राम! उस महान् युद्ध में मेरे सैकड़ों बाणों से पीड़ित एवं शस्त्रपूत हो मारे जाने पर आप पुण्य कर्मों द्वारा जीते हुए दिव्य लोकों को प्राप्त करेंगे । ‘युद्धप्रिय महाबाहु तपोधन! अब आप लोटिये और कुरूक्षेत्र में ही चलिये। मैं युद्ध के लिये वहीं आपके पास आऊंगा ।‘भृगुनन्दन परशुराम! जहां पूर्वकाल में अपने पिता को अञ्जलि-दान देकर आपने आत्मशुद्धि का अनुभव किया था, वहीं मैं भी आपको मारकर आत्मशुद्धि करूंगा ।‘ब्राह्मण कहलाने वाले रणदुर्मद राम! आप तुरंत कुरूक्षेत्र में पधारिये। मैं वहीं आकर आपके पुरातन दर्प का दलन करूंगा । ‘राम! आप जो बहुत बार भरी सभाओं में अपनी प्रशंसा के लिये यह कहा करते हैं कि मैंने अकेले ही संसार के समस्त क्षत्रियों को जीत लिया था तो उसका उत्तर सुन लीजिये । ‘उन दिनों भीष्म अथवा मेरे-जैसा दूसरा कोई क्षत्रिय नहीं उत्पन्न हूआ था। तेजस्वी क्षत्रिय तो पीछे उत्पन्न हुए हैं। आप तो घास-फूस में ही प्रज्वलित हुए हैं (तिनकों के समान दुर्बल क्षत्रियों पर ही अपना तेज प्रकट किया हैं) । ‘महाबाहो! जो आपकी युद्ध विषयक कामना तथा अभिमान को नष्ट कर सके, वह शत्रुनगरी पर विजय पाने वाला यह भीष्म तो अब उत्पन्न हुआ हैं। राम! मैं युद्ध में आप का सारा घमंड़ चूर-चूर कर दूंगा, इसमें संशय नहीं है’ ।भीष्मजी कहते हैं- भरतनन्दन! तब परशुरामजी ने मुझसे हंसते हुए से कहा- ‘भीष्म! बडे़ सौभाग्य की बात है कि तुम रणक्षेत्र में मेरे साथ युद्ध करना चाहते हो । ‘कुरूनन्दन! यह देखो, मैं तुम्हारे साथ युद्ध के लिये कुरूक्षेत्र में चलता हूं। परंतप! वहीं आओ। मैं तुम्हारा कथन पूरा करूंगा। वहां तुम्हारी माता गङ्गा तुम्हें मेरे हाथ से मरकर सैकड़ों बाणों से व्याप्त और कौओं, कङ्कों तथा गीधों का भोजन बना हुआ देखेगी ।
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