महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 32 श्लोक 11-21

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द्वात्रिंश (32) अध्याय: उद्योग पर्व (संजययान पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: द्वात्रिंश अध्याय: श्लोक 11-21 का हिन्दी अनुवाद

संजय ने कहा-‘पाण्‍डुपुत्र राजा युधिष्ठिर अपने मंत्रियों सहित सकुशल हैं और पहले आपके सामने जो उनका राज्‍य और धन आदि उन्‍हें प्राप्‍त था, उसे पुन: वापस लेना चाहते हैं। वे विशुद्धभाव से धर्म और अर्थ का सेवन करने वाले, मनस्‍वी, विद्वान् दूरदर्शी ओर शीलवान् हैं। भारत! पाण्‍डुनंदन युधिष्ठिर की दृष्टि में अन्‍य धर्मों की अपेक्षा दया ही परम धर्म है। वे धनसंग्रह की अपेक्षा धर्म-पालन को ही श्रेष्‍ठ मानते हैं। उनकी बुद्धि धर्मविहीन एवं निष्‍प्रयोजन सुख तथा प्रिय वस्‍तुओं का अनुसरण नहीं करती है। महाराज! सूत में बंधी हुई कठपुतली जिस प्रकार दूसरों से प्रेरित होकर ही नृत्‍य करती है, उसी प्रकार मनुष्‍य परमात्‍मा की प्रेरणा से ही प्रत्‍येक कार्य के लिये चेष्‍टा करता है। पाण्‍डुनंदन युधि‍ष्ठिर के इस कष्‍ट को देखकर मैं यह मानने लगा हूं कि मनुष्‍य पुरूषार्थ की अपेक्षा दैव (ईश्र्वरीय) विधान ही बलवान् है। अपका कर्मदोष अत्‍यंत भयंकर, अवर्णनीय तथा भविष्‍य में पाप एवं दु:ख की प्राप्ति कराने वाला है। इसे भी देखकर मैं इसी निश्र्चय पर पहुंचा हूं कि परमात्‍मा का विधान ही प्रधान है। जबतक विघाता चाहता है, तभीतक यह मनुष्‍य सीमित समयतक ही प्रशंसा पाता है। जैसे सर्प पुरानी केंचुल को, जो शरीर में ठहर नहीं सकती, उतारकर चमक उठता है, उसी प्रकार अजातशत्रु वीर युधिष्ठिर पापका परित्‍याग करके और उस पाप को आप-पर ही छोड़कर अपने स्‍वाभाविक सदाचार से सुशोभित हो रहे हैं। महाराज! जरा आप अपने कर्मपर तो ध्‍यान दीयिये ।
धर्म और अर्थ से युक्‍त जो श्रेष्‍ठ पुरूषों का व्‍यवहार है, आपका बर्ताव उससे सर्वथा विपरीत है। राजन् ! इसी के कारण इस लोक में आपकी निंदा हो रही है और पुन: परलोक में भी आपको पापमय नरका का दु:ख भोगना पड़ेगा। भरतवंशशिरोमणे! आप इस समय अपने पुत्रों के वश में होकर पाण्‍डवों को अलग करके अकेले उनकी सारी सम्‍पत्ति ले लेना चाहते हैं; पहले तो इसकी सफलता में ही संदेह है। (और यदि आप सफल हो भी जायं तो) इस भूमण्‍डल में इस अधर्म के कारण आपकी बड़ी भारी निंदा होगी। अत: यह कार्य कदापि आपके योग्‍य नहीं है। जो लोग बुद्धिहीन, नीच कुल में उत्‍पन्‍न,क्रुर, दीर्घकाल-तक वैरभाव बनाये रखने वाले, क्षत्रियोचित्‍त युद्धविद्या में अ‍नभिज्ञ, परा‍क्रमहीन और अशिष्‍ट होते हैं, ऐसे ही स्‍वभाव के लोगों पर आपत्तियां आती हैं। जो कुलही, बलवान्, यशस्‍वी, बहुत विद्वान्, सुखजीवी और मन को वश में रखनेवाला है तथा जो परस्‍पर गुंथे हुए धर्म ओर अधर्म को धारण करता है, वही भाग्‍यवश अभीष्‍ठ गुण-सम्‍पत्ति प्राप्‍त करता है। आप श्रेष्‍ठ मन्त्रियों का सेवन करने वाली हैं, स्‍वयं भी बुद्धिमान् हैं, आपत्तिकाल में धर्म और अर्थ का उचित रूप से प्रयोग करते हैं, सब प्रकार की अच्‍छी सलाहों से भी आप युक्‍त हैं। फिर आप-जैसे साधनसम्‍पन्‍न विद्वान् पुरूष ऐसा क्रूरतापूर्ण कार्य कैसे कर सकते हैं? सदा कर्मों में नियुक्‍त किये हुऐ ये आपके मन्‍त्रवेत्‍ता मन्‍त्री कर्ण आदि एकत्र होकर बैठक किया करते हैं। इन्‍होंने (पाण्‍डवों को राज्‍य न देने का) जो प्रबल निश्र्चय कर लिया है, यह अवश्‍य ही कौरवों के भावी विनाश का कारण वन गया है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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