महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 33 श्लोक 17-33
त्रयस्त्रिंश (33) अध्याय: उद्योग पर्व (संजययान पर्व)
क्रोध, हर्ष, गर्व, लज्जा उद्दण्डता तथा अपने को पूज्य समझना-ये भाव जिसको पुरूषार्थ से भ्रष्ट नहीं करते, वही पण्डित कहलाता है। दूसरे लोग जिसके कर्तव्य, सलाह और पहले से किये हुए विचार को नहीं जानते, बल्कि काम पूरा हो जाने पर ही जानते है, वही पण्डित कहलाता है। सर्दी-गरमी, भय-अनुराग, सम्पत्ति अथवा दरिद्रता-ये जिसके कार्य में विघ्न नहीं डालते, वही पण्डित कहलाता है। जिसकी लौकिक बुद्धि धर्म और अर्थ का ही अनुसरण करती है और जो भोग को छोड़कर पुरूषार्थ का ही वरण करता है, वही पण्डित कहलाता है। विवेकपूर्ण बुद्धिवाले पुरूष शक्ति के अनुसार काम करने-की इच्छा रखते हैं ओर करते भी हैं तथा किसी वस्तु को तुच्छ समझकर उसकी अवहेलना नहीं कर। विद्वान् पुरूष किसी विषय को देरतक सुनता है; किंतु शीघ्र ही समझ लेता है, समझकर कर्तव्यबुद्धि से पुरूषार्थ में प्रवृत्त होता है-कामनासे नहीं, बिना पुछे दूसरे के विषय में व्यर्थ कोई बात नहीं कहता है। उसका यह स्वभाव पण्डित की मुख्य पहचान । पण्डितों की-सी बुद्धि रखने वाले मनुष्य दुर्लभ वस्तु की कामना नहीं करते, खोयी हुई वस्तु के विषय में शोक करना नहीं चाहते और विपत्ति में पड़कर घबराते नहीं है।
जो पहले निश्रवय करके फिर कार्य का आरम्भ करता है, कार्य के बीच में नहीं रूकता, समय को व्यर्थ नहीं जाने देता और चित्त को वश में रखता है, वही पण्डित कहलाता है। भरतकुलभूषण! पण्डितजन श्रेष्ठ कर्मों में रूचि रखते हैं तथा भलाई करने वालों में दोष नहीं निकालते। जो अपना आदर होने पर हर्ष के मारे फूल नहीं उठता, अनादर से संतप्त नहीं होता तथा गङा्गजी के हृद (गहरे गर्त) के समान जिसके चित्त को क्षोभ नहीं होता, वही पण्डित कहलाता है । जो सम्पूर्ण भौतिक पदार्थो की असलियत का ज्ञान रखने-वाला, सब कार्यों के करने का ढ़ग जानने वाला तथा मनुष्यों में सबसे बढ़कर उपाय का जानकार है, वह मनुष्य पण्डित कहलाता है।। जिसकी वाणी कहीं रूकती नहीं, जो विचित्र ढ़ग से बातचीत करता है, तर्क में निपुण और प्रतिभाशाली है तथा जो ग्रन्थ के तात्पर्य को शीघ्र बता सकता है, वह पण्डित कहलाता है। जिसकी विद्या बुद्धि का अनुसरण करती है और बुद्धि विद्या का तथा जो शिष्ट पुरूषों की मर्यादा का उल्लङ्घन नहीं करता, वही पण्डित की संज्ञा पा सकता है। बिना पढे़ ही गर्व करने वाले, दरिद्र होकर भी बडे़-बडे़ मनोरथ करने वाले और बिना काम किये ही धन पाने की इच्छा रखने वाले मनुष्य को पण्डित लोग मूर्ख कहते हैं ।
जो अपना कर्तव्य छोड़कर दूसरे के कर्तव्य का पालन करता है तथा मित्र के साथ असत् आचरण करता है, वह मूर्ख कहलाता है। जो न चाहने वालों को चाहता है और चाहने वालों को त्याग देता है तथा जो अपने से बलवान् के साथ वैर बांधता है, उसे मूढ़ विचार का मनुष्य कहते है। जो शत्रु को मित्र बनाता और मित्र से द्वेष करते हुए उसे कष्ट पहुंचाता है तथा सदा बुरे कर्मों का आरम्भ किया करता है, उसे मूढ़ चित्त वाला कहते हैं ।
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