महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 34 श्लोक 18-35
चतुस्त्रिंश (34) अध्याय: उद्योग पर्व (संजययान पर्व)
जैसे माली बगीचे में एक-एक फूल तोड़ता है, उसकी जड़ नहीं काटता, उसी प्रकार राजा प्रजा की रक्षापूर्वक उनसे कर ले। कोयला बनानेवाले की तरह जड़ से नहीं काटे। इसे करने से मेरा क्या लाभ होगा और न करने से क्या हानि होगी-इस प्रकार कर्मों के विषय में भलीभांति विचार करके फिर मनुष्य (कर्म) करे या न करे। कुछ ऐसे व्यर्थ कार्य हैं,जो नित्य अप्राप्त होने के कारण आरम्भ करने योग्य नहीं होते; क्योंकि उनके लिये किया हुआ पुरूषार्थ भी व्यर्थ हो जाता है। जिसकी प्रसन्नता का कोई फल नहीं ओर क्रोध भी व्यर्थ है, उसको प्रजा स्वामी बनाना नहीं चाहती-जैसे स्त्री नपुंसक को पति नहीं बनाना चाहती। जिनका मूल (साधन) छोटा ओर फल महान् हो, बुद्धिमान् पुरूष उनको शीघ्र ही आरम्भ कर देता है; वैसे कर्मों में वह विध्न नहीं आने देता। जो राजा इस प्रकार प्रेम के साथ कोमल दृष्टि से देखता है, मानो आंखों से पीना चाहता है, वह चुपचाप बैठा भी रहे,तो भी प्रजा उससे अनुराग रखती है। राजा वृक्ष की भांति अच्छी तरह फूलने (प्रसन्न रहने) पर भी फल से खाली रहे (अधिक देने वाला न हो )। यदि फल से युक्त (देनेवाला) हो तो भी जिसपर चढ़ा न जा सके, ऐसा (पहुंचके बाहर) होकर रहे। कच्चा (कम शक्तिवाला) होने पर भी पके (शक्तिसम्पन्न) की भांति अपने को प्रकट करे। ऐसा करने से वह नष्ट नहीं होता। जो राजा नेत्र, मन, वाणी ओर कर्म-इन चारों से प्रजाको प्रसन्न करता है, उसी से प्रजा प्रसन्न रहती है। जैसे व्याध से हरिन भयभीत होते हैं, उसी प्रकार जिससे समस्त प्राणी डरते हैं, वह समुद्रपर्यन्त पृथ्वी का राज्य पाकर भी प्रजाजनों के द्वारा त्याग दिया जाता है। अन्याय में स्थित हुआ राजा बाप-दादों का राज्य पाकर भी अपने कर्मोंसे उसे इस तरह भ्रष्ट कर देता है, जैसे हवा बादल को छिन्न-भिन्न कर देती है। परम्परा से सज्जन पुरूषोंद्वारा किये हुए धर्म का आचरण करने वाले राजा के राज्य की पृथ्वी धन-धान्य से पूर्ण होकर उन्नति को प्राप्त होती है ओर उसके ऐश्र्वर्य को बढ़ाती है। जो राजा धर्म को छोड़ता और अधर्म का अनुष्ठान करता है, उसकी राज्यभूमि आगपर रक्खे हुए चमड़े की भांति संकुचित हो जाती है। दूसरे राष्ट्रों का नाश करने के लिये जिस प्रकार का प्रयत्न किया जाता है, उसी प्रकार की तत्परता अपने राज्य की रक्षा के लिये करनी चाहिये। धर्म से ही राज्य प्राप्त करे ओर धर्म से ही उसकी रक्षा करें; क्योंकि धर्ममूलक राज्यलक्ष्मी को पाकर न तो राजा उसे छोड़ता है और न वही राजा को छोड़ती है। निरर्थक बोलने वाले, पागल तथा बकवाद करने वाले बच्चे से भी सब ओर से उसी भांति सार बात ग्रहण करनी चाहिये, जैसे पत्थरों में से सोना लिया जाता है। जैसे शिलोञ्छवृत्ति से जीविका चलाने वाला अनाज का एक एक दाना चुगता रहता है, उसी प्रकारधीर पुरूष को जहां-तहां से भावपूर्ण वचनों, सूक्तियों और सत्कर्मों का संग्रह करते रहना चाहिये ।।३३।। गोएं गन्ध से, ब्राह्मणलोग वेदोंसे, राजा गुप्तचरों से और अन्य साधारण लोग आंखों से देखा करते हैं। राजन्! जो गाय बड़ी कठिनाईसे दुहने देती है, वह बहुत क्लेश उठाती है; किंतु जो आसानी से दूध देती है, उसे लोग कष्ट नहीं देते।
« पीछे | आगे » |