महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 35 श्लोक 1-17

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पञ्चत्रिंश(35) अध्याय: उद्योग पर्व (संजययान पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: पञ्चत्रिंश अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


विदुर के द्वारा केशिनी के लिये सुधन्वा के साथ विरोचन के विवाद का वर्णन करते हुए धृतराष्‍ट्र को धर्मोपदेश

धृतराष्‍ट्र ने कहा- महाबुद्धे! तुम पुन: धर्म और अर्थ से यु‍क्त बातें कहो। इन्हें सुनकर मुझे तृप्ति नहीं होती। इस विषय में तुम विलक्षण बातें कह रहे हो।

विदुरजी बोले- राजन्! सब तीर्थों में स्नान और सब प्राणियों के साथ कोमलता का बर्ताव- ये दोनों एक समान हैं; अथवा कोमलताके बर्ताव का विशेष महत्त्व । विभो! आप अपने पुत्र कौरव, पाण्‍डव दोनों के साथ (समान रूप से) कोमलता का बर्ताव कीजिये। ऐसा करने से इस महान् सुयश प्राप्त करके मरने के पश्र्वात् लोक में आप स्वर्गलोक में जायंगे। पुरूषश्रेष्‍ठ! इस लोक में जब त‍क मनुष्‍य की पावन कीर्ति का गान किया जाता है, तब त‍क वह स्वर्ग लोक में प्रतिष्ठित होता है। इस विषय में उस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं, जिसमें ‘केशिनी’ के लिये सुधन्वा के साथ विरोचन के विवाद का वर्णन है। राजन्! एक समय की बात है, केशिनी नाम वाली एक अनुपम सुन्दरी कन्या सर्वश्रेष्‍ठ पति को वरण करने की इच्छा से स्वयंवर-सभा में उपस्थित हुई। उसी समय दैत्यकुमार विरोचन उसे प्राप्त करने की इच्छा से वहां आया। तब केशिनी ने वहां दैत्यराज से इस प्रकार बातचीत की।

केशिनी बोली- विरोचन! ब्राह्मण श्रेष्‍ठ होते हैं या दैत्य? यदि ब्राह्मण श्रेष्‍ठ होते हैं तो सुधन्वा ब्राह्मण ही मेरी शय्यापर क्यों न बैठे? अर्थात् मैं सुधन्वा से ही विवाह क्यों न करूं?

विरोचन ने कहा- केशिनी! हम प्रजापति की श्रेष्‍ठ संतानें हैं, अत: सबसे उत्तम हैं। यह सारा संसार हम लोगों-का ही है। हमारे सामने देवता क्या हैं? और ब्राह्मणकौन चीज हैं?

केशिनी बोली- विरोचन! इसी जगह हम दोनों प्रतीक्षा करें; कल प्रात:काल सुधन्वा यहां आवेगा। फिर मैं तुम दोनों को एकत्र उपस्थित देखूंगी। विरोचन बोला- कल्याणी! तुम जैसा कहती हो, वही करूंगा। भीरू! प्रात:काल तुम मुझे और सुधन्वा को एक साथ उपस्थित देखोगी।

विदुरजी कहते हैं- राजाओं में श्रेष्‍ठ धृतराष्‍ट्र! इसके बाद जब रात बीती और सूर्यमण्‍डल का उदय हुआ, उस समय सुधन्वा उस स्थान पर आया, जहां विरोचन केशिनी के साथ उपस्थित था। भरतश्रेष्‍ठ! सुधन्वा प्रह्लादकुमार विरोचन और केशिनी-के पास आया। ब्राह्मण को आया देख केशिनी उठ खड़ी हुई और उसने उस आसन, पाद्य और अर्घ्‍य निवेदन किया।

सुधन्वा बोला-प्रह्लादनन्दन! मैं तुम्हारे इस सुवर्ण-मय सुन्दर सिंहासन को केवल छू लेता हूं, तुम्हारे साथ इस पर बैठ नहीं सकता; क्योकि ऐसर होने से हम दोनों एक समान हो जायंगे।

विरोचन ने कहा- सुधन्वन्! तुम्हारे लिये तो पीढा़, चटाई या कुश का आसन उचित है; तुम मेरे साथ बराबर के आसन पर बैठने योग्य हो ही नहीं।

सुधन्वा ने कहा- विरोचन! पिता और पुत्र एक साथ एक आसन पर बैठ सकते हैं; दो ब्राह्मण, दो क्षत्रिय, दो वृद्ध, दो वैश्‍य और दो शूद्र भी एक साथ बैठ सकते हैं; किंतु दूसरे कोई दो व्यक्ति परस्पर एक साथ नहीं बैठ सकते। तुम्हारे पिता प्रह्लाद नीचे बैठकरही उञ्चासन आसीन हुए मुझ सुधन्वा की सेवा किया करते हैं। तुम अभी बालक हो, घर में सुख से पले हो; अत: तुम्हें इन बातों का कुछ भी ज्ञान नहीं है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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