महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 35 श्लोक 34-50

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पञ्चत्रिंश(35) अध्याय: उद्योग पर्व (संजययान पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: पञ्चत्रिंश अध्याय: श्लोक 34-50 का हिन्दी अनुवाद

सुवर्ण के लिये झूठ बोलने वाला अपनी भूत और भविष्‍य सभी पीढ़ियों को नरक में गिराता है। पृथ्‍वी त‍था स्त्री के लिये झूठ कहने वाला तो अपना सर्वनाश ही कर लेता है; इसलिये तुम भूमि या स्त्री के लिये कभी झूठ न बोलना।

प्रह्लाद ने कहा- विरोचन! सुधन्‍वा के पिता अङ्गिरा मुझसे श्रेष्‍ठ हैं , सुधन्‍वा तुमसे श्रेष्‍ठ है, इसकी माता तुमहारी माता से श्रेष्‍ठ है; अत: तुम आज सुधन्‍वा के द्वारा जीते गये। विरोचन! अब सुधन्‍वा तुम्‍हारे प्राणों का स्‍वामी है। सुधन्‍वन्! अब यदि तुम दे दो तो मैं विरोचन को पाना चाहता हूं ।

सुधन्‍वा बोला-प्रह्लाद! तुमने धर्म का ही स्‍वीकार किया है, स्‍वार्थवश झूठ नहीं कहा है; इसलिये अब तुम्‍हारे इस दुर्लभ पुत्र को फिर तुम्‍हें दे रहा हूं। प्रह्लाद! तुम्‍हारे इस पुत्र विरोचन को मैंने पुन: तुम्‍हें दे दिया; किंतु अब यह कुमारी केशिनी के निकट चलकर मेरे पैर धोवे।

विदुर जी कहतेहैं-इसलिये राजेन्‍द्र! आप पृथ्‍वी के लिये झूठ न बोलें। बेटे के स्‍वार्थवश सच्‍ची बात न कहकर पुत्र और मन्त्रियों के साथ विनाश के मुख में न जायं। देवतालोग चरवाहों की तरह डंडा लेकर किसी का पहरा नहीं देते। वे जिसकी रक्षा करना चाहते हैं, उसे उत्‍तम बुद्धि से युक्‍त कर देते हैं। मनुष्‍य जैसे-जैसे कल्‍याण में मन लगाता है, वैसे-ही-वैसे उसके सारे अभीष्‍ठ सिद्ध होते हैं-इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। कपटपूर्ण व्‍यावहार करने वाले मायावी को वेद पापों से मुक्‍त नहीं करते; किंतु जैसे पंख निकल आनेपर चिड़ियों के बच्‍चे घोंसला छोड़ देते हैं, उसी प्रकार वेद भी अंतकाल में उस (मायावी) को त्‍याग देते हैं। शराब पीना, कलह, समूह के साथ वैर, पति-पत्‍नी में भेद पैदा करना, कुटुम्‍बवालों में भेदबुद्धि उत्‍पन्‍न करना,राजा के साथ द्वेष, स्‍त्री और पुरूष में विवाद ओर बुरे रास्‍ते-ये सब त्‍याग देने योग्‍य बताये गये हैं। हस्‍तरेखा देखने वाला, चारी करके व्‍यापार करने वाला, जुआरी, वैद्य, शत्रु, मित्र और नर्तक-इन सातों को कभी भी गवाह न बनावे। आदर के साथ अग्निहोत्र, आदरपूर्वक मौनका पालन, आदरपूर्वक स्‍वाध्‍याय और आदर के साथ यज्ञ का अनुष्‍ठान-ये चार कर्म भय को दूर करने वाले हैं; किंतु वे ही यदि ठीक तरह से सम्‍पादित न हों तो भय प्रदान करने वाले होते हैं। घर में आग लगानेवाला, विष देने वाला, जारज संतान की कमाई खाने वाला, सोमरस बेचने वाला, शस्‍त्र बनानेवाला, चुगली करनेवाला, मित्रद्रोही, परस्‍त्रीलम्पट, गर्भ की हत्‍या करनेवाला, गुरूस्त्रगामी, ब्राह्मण होकर शराब पीने वाला, अधिक तीखे स्‍वभाववाला, कौए की तरह कायं-कायं करनेवाल, नास्तिक, वेद की निंदा करनेवाला, ग्रामपुरोहित: व्रात्‍य, क्रुर तथा शक्तिमान् होते हुए भी ‘मेरी रक्षा करो’, इस प्रकार कहने वाले शरणागत का जो वध करता है-ये सबके सब ब्राह्महत्‍यारों के समान हैं। जलती हुई आग से सुवर्ण की पहचान होती है, सदाचार से सत्‍पुरूष की, व्‍यावहार से श्रेष्‍ठ पुरूष की, भय प्राप्‍त होनेपर शूर की, आर्थिक कठिनाई में धीर की और कठिन आपत्ति में शत्रु एवं मित्र की परीक्षा होती है। बुढ़ापा (सुंदर) रूप को, आशा धीरता को, मूत्‍यु प्राणों को, असूया (गुणों में दोष देखने का स्‍वभाव) धर्माचरण को, क्रोध लक्ष्‍मी को, नीच पुरूषों की सेवा सत्‍स्‍वभाव को, काम लज्‍जा को और अभिमान सर्वस्‍व को नष्‍ट कर देता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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