महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 36 श्लोक 30-46

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षट्-त्रिंश (36) अध्याय: उद्योग पर्व (संजययान पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: षट्-त्रिंश अध्याय: श्लोक 30-46 का हिन्दी अनुवाद

सदाचार की रक्षायत्नपूर्वक करनी चाहिये; धन तो आता और जाता रहता है। धन क्षीण हो जाने पर भी सदाचारी मनुष्‍य क्षीण नहीं माना जाता; किंतु जो सदाचार से भ्रष्‍ट हो गया, उसे तो नष्‍ट ही समझना चाहिये। जो कुल सदाचार से हीन हैं, गौओं, पशुओं, घोड़ों तथा हरी-भरी खेती से सम्पन्न होने पर भी उन्नति नहीं कर पाते। हमारे कुल में कोई वैर करने वाला न हो, दूसरों के धन का अपहरण करने वाला राजा अथवा मन्त्री न हो और मित्र द्रोही, कपटी तथा असत्यवादी न हो। इसी प्रकार माता-पिता, देवता और अतिथियों को भोजन कराने से पहले भोजन करने-वाला भी न हो। हम लोगों में से जो ब्राह्मणों की हत्या करें, ब्राह्मणों के साथ द्वेष करे तथा पितरों को पिण्‍डदान एवं तर्पण न करे, वह हमारी सभा में न प्रवेश करें। तृण का आसन, पृथ्‍वी, जल और चौथी मीठी वाणी- सज्जनों के घर में इन चार चीजों की कभी कमी नहीं होती। महाप्राज्ञ राजन्! पुण्‍यकर्म करने वाले धर्मात्मा पुरूषों के यहां ये (उपर्युक्त वस्तुएं) बड़ी श्रद्धा के साथ सत्कार के लिये उपस्थित की जाती हैं। नृपवर! रथ छोटा-सा होने पर भी भार ढो सकता है, किंतु दूसरे काठ बडे़-बडे़ होने पर भी ऐसा नहीं कर सकते। इसी प्रकार उत्तम कुल में उत्पन्न उत्साही पुरूष भार सह सकते हैं, दूसरे मनुष्‍य वैसे नहीं होते। जिसके कोप से भयभीत होना पडे़ तथा शङ्कित होकर जिसकी सेवा की जाय, वह मित्र नहीं हैं। मित्र तो वहीं हैं, जिस पर पिता की भांति विश्‍वास किया जा सके; दूसरे तो साथी मात्र हैं। पहले से कोई सम्बन्ध न होने पर भी जो मित्रता का बर्ताव करे, वही बन्धु, वही मित्र, वही सहारा और वही आश्रय है। जिसका चित्त चञ्चल हैं, जो वृद्धों की सेवा नहीं करता, उस अनिश्र्वितमति पुरूष के लिये मित्रों का संग्रह स्थायी नहीं होता।। जैसे सूखे सरोवर के ऊपर ही हंस मंड़राकर रह जाते हैं, उसके भीतर नहीं प्रवेश करते, उसी प्रकार जिसका चित्त चञ्चल है, जो अज्ञानी और इन्द्रियों का गुलाम हैं, अर्थ उसको त्याग देते हैं। दुष्‍ट पुरूषों का स्वभाव मेघ के समान चञ्चल होता है, वे सहसा क्रोध कर बैठते हैं और अकारण ही प्रसन्न हो जाते हैं। जो मित्रों से सत्कार पाकर और उनकी सहायता से कृतकार्य होकर भी उनके नहीं होते, ऐसे कृतघ्‍नों के मरने पर उनका मांस मांसभोजी जन्तु भी नहीं खाते। धन हो या न हो, मित्रों से कुछ भी न मांगते हुए उनका सत्कार तो करे ही। मित्रोंके सार-असार की परीक्षा न करे। संताप (शोक) से रूप नष्‍ट होता है, संताप से बल नष्‍ट होता है, संताप से ज्ञान नष्‍ट होता है और संताप से मनुष्‍य रोग को प्राप्त होता है। अभीष्‍ट वस्तु शोक करने से नहीं मिलती; उससे तो केवल शरीर संतप्त होता है और शत्रु प्रसन्न होते हैं। इसलिये आप मन में शोक न करें। मनुष्‍य बार-बार मरता और जन्म लेता है,बार-बार क्षय और वृद्धि को प्राप्त होता है, बार –बार स्वयं दूसरे से याचना करता है और दूसरे उससे याचना करते हैं तथा बारंबार वह दूसरों के लिये शोक करता है और दूसरे उसके लिये शोक करते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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