महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 39 श्लोक 35-52

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एकोनचत्‍वारिंश (39) अध्याय: उद्योग पर्व (संजययान पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: एकोनचत्‍वारिंश अध्याय: श्लोक 35-52 का हिन्दी अनुवाद

जो विद्वान् पापरूप फल देने वाले कर्मों का आरम्भ नहीं करता, वह बढ़ता है; किंतु जो पूर्व में किये हुए पापों का विचार न करके उन्हीं का अनुसरण करता है, वह खोटी बुद्धिवाला मनुष्‍य अगाध कीचड़ से भरे हुए घोर नरक में गिराया जाता । बुद्धिमान् पुरूष मन्त्रभेद के इन छ: द्वारों को जाने और धन को रक्षित रखने की इच्छा से इन्हें सदा बंद रक्खे- मादक वस्तुओं का सेवन, निद्रा, आवश्‍यक बातों की जान‍कारी न रखना, अपने नेत्र-मुख आदि का विकार, दुष्‍ट मन्त्रियों पर विश्र्वास और कार्यों में अकुशल दूतपर भी भरोसा रखना। राजन्! जो इन द्वारों को जानकर सदा बंद किये रहता हैं, वह अर्थ, धर्म और काम के सेवन में लगा रह-कर शत्रुओं को वश में कर लेता हैं। बृहस्पति के समान मनुष्‍य भी शास्त्रज्ञान अथवा वृद्धों की सेवा किये बिना धर्म और अर्थ का ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकते। समुद्र में गिरी हुई वस्तु विनाश को प्राप्त हो जाती है; जो सुनता नहीं, उससे कही हुई बात भी विनष्‍ट हो जाती है; अजितेन्द्रीय पुरूष का शास्त्रज्ञान और राख में किया हुआ हवन भी नष्ट ही हैं। बुद्धिमान् पुरूष बुद्धि से जाचंकर अपने अनुभव से बारंबार उनकी योग्यता का निश्र्चय करे; फिर दूसरों से सुन कर और स्वयं देखकर भली भांति विचार करके विद्वानों के साथ मित्रता करे। विनयभाव अपयश का नाश करता है, पराक्रम अनर्थ को दूर करता है, क्षमा सदा ही क्रोध का नाश करती है और सदाचार कुलक्षण का अन्त करता है। राजन्! नाना प्रकार के परिच्छेद, माता, घर, सेवा-शुश्रुषा और भोजन तथा वस्त्र के द्वारा कुलकी परीक्षा करे। देहाभिमान से रहित पुरूष के पास भी यदि न्याय युक्त पदार्थ स्वत: उपस्थित हो तो वह उसका विरोध नहीं करता, फिर कातासक्त मनुष्‍य के लिये तो कहना ही क्या है?[१] जो विद्वानों की सेवा में रहने वाला, वैद्य, धार्मिक, देखने में सुन्दर, मित्रों से युक्त तथा मधुरभाषी हो, ऐसे सुहृद् की सर्वथा रक्षा करनी चाहिये। अधम कुल में उत्पन्न हुआ हो या उत्तम कुल में- जो मर्यादा का उल्लघंन नहीं करता, धर्म की अपेक्षा रखता है, कोमल स्वभाव वाला तथा सलज्ज है, वह सैकड़ों कुलीनों से बढ़कर है। जिन दो मनुष्‍यों का चित्त से चित्त, गुप्त रहस्य से गुप्त रहस्य और बुद्धि से बुद्धि मिल जाती है, उनकी मित्रता कभी नष्‍ट नहीं होती। मेधावी पुरूष को चाहिये कि तृण से ढंके हुए कुएं की भांति दुर्बुद्धि एवं विचारशक्ति से हीन पुरूष का परित्याग कर दे; क्योंकि उसके साथ की हुई मित्रता नष्‍ट हो जाती है। विद्वान् पुरूष को उचित है कि अभिमानी, मूर्ख, क्रोधी, साहसिक और धर्महीन पुरूषों के साथ मित्रता न करे। मित्र तो ऐसा होना चाहिये, जो कृमज्ञ, धार्मिक, सत्यवादी, उदार, दृढ़ अनुराग रखने वाला, जितेन्द्रीय, मर्यादा के भीतर रहने वाला और मैत्री का त्याग न करने वाला हो। इन्द्रियों को सर्वथा रोक रखना तो मृत्यु से भी बढ़कर कठिन है और उन्हें बिलकुल खुली छोड़ देना देवताओं का भी नाश कर देता है। सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति कोमलता का भाव, गुणों में दोष न देखना, क्षमा, धैर्य और मित्रों का अपमान न करना- ये सब गुण आयु को बढा़ने वाले हैं- ऐसा विद्वान् लोग कहते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. १.हाथी, घोड़ा, रथ आदि ।

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