महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 43 श्लोक 1-12

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त्रिचत्‍वारिंश (43) अध्याय: उद्योग पर्व (सनत्सुजात पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: त्रिचत्‍वारिंश अध्याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद

धृतराष्‍ट्र बोले-विद्वन् ! यह मौन किसका नाम है? (वाणी का संयम और परमात्‍मा का स्‍वरूप) इन दोनों में से कौन-सा मौन है? यहां मौनभाव का वर्णन कीजिये। क्‍या विद्वान् पुरूष मौन के द्वारा मोनरूप परमात्‍मा को प्राप्‍त होता है? मुने! संसार में लोग मौन का आचरण किस प्रकार करते हैं? ।

सनत्‍सुजात ने कहा-राजन्! जहां मनके सहित वाणीरूप वेद नहीं पहुंचे पाते; उस परमात्‍मा का ही नाम मौन है; इसलिये वही मौनस्‍वरूप है। वैदिक तथा लौकिक शब्‍दों का जहां से प्रादुर्भाव हुआ है, वे परमेश्रवर तन्‍मयतापूर्वक ध्‍यान करने से प्रकाश में आते हैं।

धृतराष्‍ट्र बोले-विद्वन् ! जो ॠग्‍वेद, यजुर्वेद और सामवेद को जानता है तथा पाप करता है, वह उस पाप से लिप्‍त होता है या नहीं ?

सनत्‍सुजातने कहा-राजन्! मैं तुमसे असत्‍य नहीं कहता, ॠक्, साम अथवा यजुर्वेद कोई भी पाप करने वाले अज्ञानी की उसके पापकर्म से रक्षा नहीं करते। जो कपटपूर्वक धर्म का आचरण करता है, उस मिथ्‍या-चारी का वेद पापों से उद्धार नहीं करते। जैसे पंख निकल आनेपर पक्षी अपना घोंसला छोड़ देते हैं, उसी प्रकार अंत काल में वेद भी उसका परित्‍याग कर देते हैं।

धृतराष्‍ट्र बोले-विद्वन्! यदि धर्म के बिना वेद रक्षा करने में समर्थ नहीं हैं, तो वेदवेत्‍ता ब्राह्मणों के पवित्र होने का प्रलाप[१] चिरकाल से क्‍यों चला आता है?

सनत्‍सुजात ने कहा-महानुभाव! परब्रह्म परमात्‍मा के ही नाम आदि विशेष रूपों से इस जगत् की प्रतीति होती है।यह बात वेद अच्‍छी तरह निर्देश करके कहते हैं। किंतु वास्‍तव में उसका स्‍वरूप इस विश्र्व से विलक्षण बताया जाता है। उसीकी प्राप्ति के लिये वेद में तप और यज्ञों का प्रतिपादन किया गया है। इन तप और यज्ञोंके द्वारा उस श्रोत्रिय विद्वान् पुरूष पुण्‍य की प्राप्ति होती है। फिर उस निष्‍काम कर्मरूप पुण्‍य से पाप को नष्‍ट कर देनेके पश्र्चात् उसका अंतकरण ज्ञान से प्रकाशित हो जाता है। तब वह विद्वान् पुरूष ज्ञान से परमात्‍मा को प्राप्‍त होता है; किंतु इसके विपरीत जो भोगाभिलाषी पुरूष धर्म, अर्थ और कामरूप त्रिवर्गफल की इच्‍छा रखते हैं, वे इस लोक में किये हुए सभी कर्मों को साथ ले जाकर उन्‍हें परलोक में भोगते हैं तथा भोग समाप्‍त होने पर पुन: इस संसारमार्ग में लौट आते हैं। इस लौक में जो तपस्‍या (सकामभाव से) की जाती है, उसका फल परलोक में भोगा जाता है; परंतु जो ब्रह्मोपासक इस लोक में निष्‍कामभाव से गुरूतर तपस्‍या करते हैं, वे इसी लोक में तत्‍त्‍वज्ञानरूप फल प्राप्‍त करते हैं (और मुक्‍त हो जाते हैं)। इस प्रकार एक ही तपस्‍या ॠद्ध और समृद्ध के भेद से दो प्रकार की है।

धृतराष्‍ट्र ने पूछा-सनत्‍सुजातजी ! विशुद्ध भावयुक्‍त केवल तप ऐसा प्रभावशाली बढ़ा-चढ़ा कैसे हो जाता है? यह इस प्रकार कहये, जिससे हम उसे समझ लें।

सनत्‍सुजात ने कहा-राजन्! यह तप सब प्रकार से निर्दोष होता है। इसमें भोगवासनारूप दोष नहीं रहता। इसलिये यह विशुद्ध कहा जाता है और इसीलिये यह विशुद्ध तप सकाम तप की अपेक्षा फलकी दृष्टि से भी बहुत बढ़ा-चढ़ा होता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ’ॠग्‍यजु:सामभि: पूतो ब्रह्मलोके महीयते।‘ (ॠग्‍वेद, यजुर्वेद और सामवेद से पवित्र होकर ब्राह्मण ब्रह्मलोकमें प्रतिष्ठित होता है;) इत्‍यादि वेदवचन वेदवेत्‍ता ब्राह्मणों के पवित्र एवं निष्‍पाप होने की बात कहते हैं।

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